पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९२४

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Pa n dime + + + + + + भक्तिसुधास्वाद तिलक ! ९०५ वात्तिक तिलक । एक समय पृथ्वीपति(वादशाह) के मन में यह भाया कि "बहुत से लोग माना और तिलक धारण किये रहते हैं, देखू तो कि इनमें सच्ची प्रीति और निष्ठा किसकी है?" इसलिये मथुरा में डौंडी (मुनादी) फिरवा दी कि "जो कोई माला तिलक धारण करेगा वह मार डाला जायगा।" उसकी आज्ञा मान अपने प्राण के लोभ से बहुत लोगों ने माला तिलक तज दिये। बहुत से लोग गृह में छिपे रहे, क्योंकि जानते थे कि जो पृथ्वीपति जानेगा तो शीघ्र मार डालेगा । परन्तु श्रीभगवानदासजी के हृदय में तो भक्तिसुख का सिन्धु भरा था, इससे सुन्दर दीर्घ द्वादस तिलक और बहुतसी तुलसीकी माला धारणकर पृथ्वीपति के समीप गये । देखके हृदय में प्रसन्न हो, ऊपर से रुष्ट होकर उसने पूछा कि "तुमने मेरी पाना क्यों नहीं मानी ?" आपने प्रशंक उत्तर दिया कि “हमारे मत में सिद्धान्त है कि जो माला तिलक धारण- कर प्राण त्याग करता है, वह अवश्य भगवान के धाम को जाता है। इस लाभ के लिये श्रापकी बाबा को धन्य माना।" आपकी सच्ची निष्ठा देख नृपति ने एका कि “जो इच्छा हो सो माँगो।" आपने कहा कि "मैं जीवनावधि मथुरा निवास चाहता हूँ।" उसने लिख दिया कि "मथुरा की अध्यक्षताजवतक जियो तवतक करो।"श्रीभगवानदासजीने जन्मभर मथुरावास किया, और गोवर्द्धनजी के समीप श्रीहरिदेवजी का मन्दिर बनवाया सो अवतक विराजमान है, दर्शन करिये। (२२०) श्रीकल्याणसिंहजी। ( ८०९) छप्पय । ( ३४ ) भक्तपच उद्दारता यह निवही "कल्यान” की। जगन्नाथ को दास निपुन, अति प्रभु मन भायो। परम पारषद समुझि जानि प्रिय निकट बुलायौ ॥ प्रान पयानौ करत, नेह रघुपति सों जोखो । सुत दाराधन