पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९२५

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९०६ श्रीभक्तमाल सटीक । धाम मोह, तिनुका ज्यों तोखो ॥ कौंधनी ध्यान उर में लस्यौ, "राम" नाम मुख जानकी भक्तपक्ष, उद्दारता, यह निबही "कल्यान" की ॥१८६॥ (२५) वातिक तिलक । श्रीभगवद्भक्तों का पक्ष करना और उदारता अर्थात् धन आदिक पदार्थ तथा प्राणतक दूसरे को दे देना, श्रीरामकृपा से ये दोनों बातें नोनेरे नगवाले श्रीकल्यानसिंहजी की जीवनपर्यन्त निवह गई। श्राप श्रीजगन्नाथजी की दासता में अति निपुण थे और श्रीप्रभु के मन में भाते थे। श्रीजगन्नाथजी ने अपना परम पार्षद विचार, प्रिय जान, अपने निकट बुला लिया । अन्त में प्राण त्याग करते समय अपना स्नेह केवल श्रीरघुनन्दनजी से लगाया, और स्त्री पुत्र धन धाम आदिकों का मोह तृण के समान तोड़ डाला । "जरौ सो सम्पति सदन सुख, सुहृद मातु पितु भाइ । सन्मुख होत जो रामपद, करे न सहज सहाइ ॥" आप ऐसे बड़भागी थे कि अन्त में श्रीरघुवरजी के कटि कौंधनी (करधनी) का ध्यान हृदय में साक्षात् आगया और मुख से “श्रीजानकी राम" नाम उच्चारणकर प्राण को त्यागके साकेत श्रीरामधाम को प्राप्त हुये॥ श्रीहरिभक्तों के पक्ष करने का एक वृतान्त यह है कि एक समय अपने स्थान नोनेरे नगर से अपने भाई अनूपसिंह के सहित उत्सव दर्शनार्थ श्रीवृन्दावन को चले जाते थे मार्ग में देखा कि एक धनी सरावगी दुष्ट एक दीन वैष्णव को दुःख दे रहा है । आपने इन वैष्णव साधु का पक्षकर उस दुष्ट से बचा लिया तथा धनादिक दे सुखी कर दिया। श्रीराधाकृष्णदासजी के अनुमान में श्रीरूप गोस्वामी के शिष्य कल्यानदास यही महानुभाव हैं परन्तु शृङ्गारनिष्ठावाले श्रीकल्यानदासजी और दास्यनिष्ठावाले कल्यानसिंहजी दो जान पड़ते हैं ।।