पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

+- + -+++MMR+ + "P una+ In ++ - - - -- भक्तिसुधास्वाद तिलक । (२२११२२२) श्रीसंतदास,श्रीमाधवदास। (८१० ) छप्पय । ( ३३ ) सोदर “सोभूराम” के, सुनौ संत तिनकी कथा ॥ "संतराम" सदत्ति जगत छोई करिडायो । महिमा महाप्रबीन भक्ति वित धर्म विचास्यो । बहुखौ "माधव- दास" भजन बल परचौ दीनौ । करि जोगिनि सों बाद बसन पावक प्रति लीनौ ॥ परम धर्म विस्तार हित, प्रगट भए नाहिन तथा । सोदर "सोभूराम" के, सुनो संत तिनकी कथा ॥१६०॥ (२४) वार्तिक तिलक । हे सन्तजनो। श्रीसोभूरामजी के दोनों भाइयों की कथा सुनिये। श्रीसन्तदासजी ने सवृत्तियुक्त, जगत् को बोई (सीठी) के समान निरस तुच्छ जानके छोड़ दिया, और भगवद्धर्म भक्ति ज्ञान को प्रवीनता से विचारकर हृदय में धारण किया, इससे आपकी महा- महिमा हुई। दुसरे भ्राता श्रीमाधवदासजी ने भजन के बल से ऐसा परचौ दिया कि एक समय कनफटे योगी लोग आपसे विवाद करते बोले कि “हम अपने शृंग और मुद्रा को अग्नि में डालते हैं, और तुम अपनी कराठी माला डालो, देखें किसके जलते हैं।" आपने कहा कि “मैं कंठी माला अग्नि में नहीं डालूँगा, मैं अपना अँचला वस्त्र अग्नि में डालता हूँ, तुम अपने पत्थर के मुद्रा, शृंगी, को डालो।" ऐसा ही किया, कनफटे के शृंगी, मुद्रा जल गये परन्तु आपका वस्त्र न जला, आपने अग्नि से ज्यों का त्यों वस्त्र ले लिया। परम धर्म (भक्ति) के विस्तार के लिये जैसे सोभरामजी के भ्राता प्रगट हुए वैसा दूसरा नहीं हुआ। १ "छोई' सीरी॥