पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९३०

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net - r -+ - भक्तिसुधास्वाद तिलक। राजा श्रानन्दसिंह" के और “वासोई" के कुंवर (पुत्र), नृपशिरोमणि श्रीजगतसिंहजी जगत में परम भक्त हुये। श्राप दृढ़ भक्ति में तत्पर थे। परम भीति से आपने श्रीलक्ष्मीनारायणजी को स्वाभाविक अपने वश कर लिया। जिन भक्तराजजी का सुन्दर यश, सहज ही में, कुटिल कलिकाल के कल्प कहिये सामर्थ्य अथात् पाप का घायक (नाशक) था। आपकी आज्ञा अटल अर्थात् कोई मेट नहीं सकता था, यह बात प्रकट है। आप ऐसे सुभट थे कि जहाँ वीर सेनाओं में प्राप्त होते वहाँ सवको अति युद्धोत्साह सुख देते थे। आपके श्रेष्ठ भुजदंडों का प्रताप प्रज्ञान और अन्धकाररूपी शत्रुओं के नाश करने के लिये प्रति प्रचंड मार्तण्ड (सूर्य) के समान था। (८१४) टीका । कवित्त । (२९) जगता को पन मन सेवा श्रीनारायणजू, भयौ ऐसौ पारायण, रहे डोला संग ही । लरिबे को चलै श्रागै, आगे सदा पाछे रहै, ल्यावै जल सीस, ईश भखों हियो रंग ही ॥ सुनि जसवन्त जयसिंह के हुलास भयौ, देख्यौ, दिल्ली माँझ, नीर ल्यावत अभंग ही । भूमि परि, विनकरी, "धरी देह तुमही नै, जात पायो नेह भीजि गये यो प्रसंग ही ॥ ६२२ ॥() वात्तिक तिलक। सन्तनृपति आनन्दसिंह के बेटे श्रीजगतसिंहजी का श्रीलक्ष्मी- नारायणजी की सेवा में बड़ा प्रेमषण और मन ऐसा तत्पर था कि जो अपने गृह से कहीं जाते थे तो उत्तम पालकी पर विराजमानकर श्रीलक्ष्मीनारायणजी को आगे २ ले चलते थे और चाकर सरिस आप पीछे पीछे, परन्तु जब युद्ध करने को चलते थे, तब आपही आगे रहा करते थे और प्रभु की पालकी पीछे रहा करती थी। पूजा सेवा की जितनी कृत्य हैं सो सब अपने ही हाथों से करते, यहाँ तक कि प्रभु के स्नान के लिये जल प्रेमरंग से भरे नित्य अपने माथे पर रखकर लाया करते थे। ___ एक बेर शाहजहानाबाद (दिल्ली) में सब राजा इकट्ठे थे, तव श्रापका जल लाना सुनके जयपुर के राजा जयसिंह और जसवन्तसिंह-