पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९३८

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भक्तिसुधास्वाद तिवक । थों गिरपड़ी कि जैसे किसी ने धोल मारा हो। वह अति लजित हो, सभा से चला गया। एक गमरायजी ये, और एक राठौर खेमालरत्न के पुत्र रामरैन हैं। मूल १५२ । श्रीकन्हरदासजी के महामहोत्सव में, संवत् १६५२ में, सब सन्तोंने मिलकर “गोस्वामी" की पदवी श्री १०८ नाभाजी को दी॥ श्रीकान्हरदास पर श्रीसांभूरामजी की भी कृपा हुई थी। (२७०) श्रीसोभूरामजी (मूल १६०) ब्राह्मण, श्रीहरिव्यासजी के शिष्य बड़े भक्त हुए। इनका एक मन्दिर अभी तक उड़ीसा जगाधरी के पास वर्तमान है। आपके नगर के पास श्रीयमुनाजी बहती थीं । एक बेर बादसे क्लेशित हो नगर के लोग आपके पास पहुँचे, आपने श्राकर श्रीयमुनाजी से विनय किया "माता पुत्रों को पालती है, न कि डुबोती है। यदि ऐसी ही रुचि हो तो कुदाल (फावड़े) से मैं इधर बढ़ने के लिये श्रापको मार्ग वनाएं।" सुनके श्रीयमुनाजी प्रसन्न हो हट गई। फिर उधर न बढ़ी। वहाँ के नगर अधिपति (हाकिम)ने,शंखध्वनि सुन चाहा कि आप पर कोप करे। उसके मनकी जानकर, आप प्रातःकाल उसके पास पहुँच- कर बोले कि यदि मुझसे भापको क्लेश होता है तो जहाँ आपकी इच्छा हो मैं चला जाऊँ। "हाकिम ने क्षमा माँगी, विनय किया। (२३०) श्रीभगवन्तजी (श्रीमाधवदास के पुत्र)। (८२३) छप्पय । (२०) भगवन्त मुदित उदार जस, रस रसना आस्वाद किय ॥ कुंजबिहारी केलि सदा अभ्यन्तर भासै । दम्पति सहज सनेह प्रीति परमिति परकासै ॥ अननि भजन रस रीति पुष्ट मारग करि देखी । विधि निषेध बल त्यागि पागि रति, हृदय विशेखी ॥ "माधव” सुत संमत रसिक, तिलक दाम धरि सेव लिय । भगवन्त