पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९३९

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९२० श्रीभक्तमाल सटीक । मुदित उदार जस, रस रसना आस्वाद किय॥ १९८॥ (१६) वात्तिक तिलक। श्रीभगवन्त भक्तजी ने भगवत् का सरस उदार यश अपनी जीभ से प्रास्वादन किया । श्रीकुंजविहारीजी की केलि भापके हृदय में सदा भासती थी, दंपति श्रीराधाकृष्णजी का स्नेह और परम प्रेम प्रकाशित होता था, अनन्य रसरीति भजन के पुष्ट मार्ग को देखके उसी में प्रवृत्त थे, और साधारण धर्म अर्थात् विधिनिषेध कर्मों के बल को तजके, विशेष प्रीति से श्रापका हृदय पगा था, श्रीमाधवदासजी के पुत्र (भगवन्तजी)ने सन्त सम्मत रसिक, कंठी तिलक धारण कर, भगवत् भागवत सेवा ग्रहण किया । (८२४) टीका । कवित्त । (१९) सूजा के दिवान भगवंत रसवंत भए, बृन्दावन वासिन की सेवा ऐसी करी है । विप्र के गुसाई साधु कोऊ ब्रजवासी जाहु, देत बहु धन एक प्रीति मति हरी है ॥ सुनी गुरुदेव, अधिकारी श्री- गोविंददेव, नाम हरिदास “जाय देखें” चित धरी है । जोग्यताई सीवाँ प्रभु दूध भात माँगि लियौ कियो उत्साह तऊ पेखें अरवरी है॥६२७ ॥ (३) वात्तिक तिलक । श्रीभगवन्तभक्तजी आगरे के सूबा के मुख्य मंत्री, बड़े रसवंत थे। वृन्दावनवासियों की ऐसी सेवा की कि जो ब्राह्मण, गोसाई, सन्त, कोई 'ब्रजवासी उनके पास जाता, उसको बड़ी मनोहर प्रीति रीति से बहुत धन देते थे। एक समय श्रीगोविंददेवजी के अधिकारी "श्रीहरिदासजी". भगवन्तजी के गुरुदेव ने आपके यहाँ जाने का निश्चय किया। वे श्रीहरिदासजी योग्यताई के सीमा ऐसे थे कि जिनसे श्रीगोविंदजी asisoLTELL

  • नवाब शुजाउल्मुल्क सूबादार के दीवान ।