पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९४०

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९२१ - - - - - भक्तिसुधास्वाद तिलक। ने दूध भात माँग के भोजन किया । तथापि आपने श्रीभगवन्तजी की भक्ति सुनकर देखने को उत्साह उत्कण्ठा किया। (२५) टीका । कवित्त । (१८) । सुनी, गुरु आवत, अमावत न किहूँ अंग, रंग भरि तिया सों. यों ही “कहा कीजियै ?" । बोली “घरवार पट संपति भंडार सब मेंट करि दीजै, एक धोती धारि लीजिये" ॥ रीझे सुनि वानी, “साँची भक्ति त ही जानी, मेरे अति मन मानी" कहि आँखें जल भीजिये । यही बात परी कान, श्रीगुसाई लई जान, आये फिरे बृन्दावन, पन मति धीजिये ।। ६२८ ॥ (२) बात्तिक तिलक । श्रीगुरु भगवान का अागमन सुन, आपके अंग में प्रेमानन्द माता नहीं था, अपनी धम्मपत्नी से पूछा कि "कहो, श्रीगुरुजी की मंट पूजा किस प्रकार करनी चाहिये?" वह उदार, अनुरागवती बोली कि आप और मैं एक एक धोती धारण कर, और घर की सब सम्पत्ति वस्त्र भूषण द्रव्य सबका सब मेंट कर दे ऐसे वचन सुन श्रीभगवंतनी अति प्रसन्न होकर कहने लगे कि "सच्ची भक्ति एक तुमही ने जानी, तुम्हारा वचन मुझे अति प्रिय लगा," ऐसा कहते नेत्रों से प्रेम का जल बहने लगा। यह बात कही गुसाईंजी के कानों में पड़ी, दोनों का निश्चय नान, मार्ग से लोटके श्रीवृन्दावन चले आये, और अपने शिष्य (श्रीभगवन्तजी) के प्रेमपन पर अति प्रसन्न हुये ॥ (८२६) टीका ! कवित्त । (१७) रह्यौ उतसाह उर दाह को न पारावार, कियौ ले विचार, आता मागि, वन आये हैं । रहे, सुख लहे, नाना पद रचि कहे, एकरस निवहे. व्रजवासी जा छुटाये हैं। कीनी घर चोरी, तऊ नैक नासा मोरी नाहि, बोरी मति रंग, लाल प्यारी हग छाये हैं। बड़े बड़. भागी, अनुरागी, रति जागी, जग माधव रसिक बात सुनी पिता पाये हैं ।। ६२६ ॥ (१)