पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९४१

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4 . mrtml . . . . . MAHA ९२२ श्रीभक्तमाल सटीक । वात्तिक तिलक । श्रीभगवंतजी ने भी सुना कि "श्रीगुरुस्वामी वृन्दावन को लौट गये।" तब दर्शन का वह उत्साह चला गया । बरंच हृदय में बड़ा ही अनुताप हुश्रा !! वह ताप शान्त होने का विचारकर, सूबे से आज्ञा लेकर श्रीवृन्दावन श्रा, श्रीगुरुदेव का दर्शन पूजन कर सुखी हुये। कुछ दिन रहकर, अनेक पद बनाके प्रभु का यश गान किया, पापकी प्रीति रीति का एक रस निर्वाह हुश्रा॥ फिर गुरु आज्ञा ले, आगरे को गये, वहाँ कई एक व्रजवासी चोर कारागार (कैदखाने) में पड़े थे, उनको छुड़ा दिये। एक बेर और ब्रजवासी चोर भगवंतजी के गृह की सब वस्तु चुरा ले गये । परन्तु आपने दुःख से नाक न सिकोड़ी बरंच अति आनन्दित हुये, क्योंकि मति प्रेम रंग से रँगी, और नेत्रों में लाल प्यारी की छवि छा रही थी। बड़े ही बड़भागी अनुरागी थे, रीति प्रीति जगत् में जगमगा रही है । अव भगवन्तजी के पिता श्रीमाधव रसिक की अन्तकाल की बात सुनिये ॥ (२३१)श्रीमाधवदासजी (श्रीभगवन्तजी के पिता)। (८२७) टीका । कवित्त । ( १६) . आयौ अन्तकाल जानि बेसुधि पिछानि, सब श्रागरे तें लैकै चले वृन्दावन जाइयै ॥ श्राए श्राधी दूर, सुधि आई बोले चुर हैके “कहाँ लिये जात कूर ?” कही "जोई ध्याइयै” ॥ कह्यो “फेरो तन बन जाइवे को पात्र नहीं, जरै बास आवै प्रिय पियको न भाइयै” । जानहारो होई, सोई जायगौ जुगल पास, ऐसे भावरासि, ताही ठोर चलि आइयै ॥ ६३० ।।(०) वार्तिक तिलक । श्रीभगवन्तजी के पिता श्रीमाधवदासजी के अन्तकाल में, सब कोई वेसुधि जानके आगरे से पालकी पर वृन्दावन को ले चले, जब प्राधे मार्ग में पहुँचे, तब आपको सुधि हुई, बड़े दुखित होकर लोगों से पूछा