पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९४४

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- - - - - भक्तिसुधास्वाद तिलक 1 ९२५ जस । नेह परसपर अघट निबहि चारों जुग आयौ । अनुचर को उतकर्षस्याम अपने मुख गायो॥ ओत प्रोत अनुराग प्रीति सबही जगजानैं। पुर प्रबेश रघुबीर मृत्य कीरति जुबखानैं ॥ अगर अनुग शून बरनते सीतापति नित होय बस । हरिसुजस प्रीति हरिदास कैं, त्यौं भाव हरिदासजस॥२०१॥ (१३) वात्तिक तिलक। श्रीभगवान हरिका सुयश सुनने में जैसे हरिदासों की प्राति है. ऐसे ही अपने दासों का सुयश (भक्तमाल) सुनने में श्रीहरिकी भी प्रीति है, श्रीभगवत् और भगवद्भक्तों का परस्पर अघट एक रस स्नेह कृतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग, इन चारों युगों में निवह पाया. और जैसे भक्त लोग भगवत् की कीर्ति कहते हैं तैसे ही भगवान भी अपने भक्तों की कीर्ति कहते हैं, सो देखिये “भागवत एकादश" में उद्धव के प्रति श्रीकृष्णचन्द्रजी ने अपने अनुचरों (भक्तों) के उत्कर्ष अर्थात् अतिशय यश अपने मुख से गान किये हैं, और प्रभु श्रीरघुबीरजी ने भी (जब वन से प्राकर श्रीअवधपुर में प्रवेश करने लगे तब) श्रीभरत वशिष्ट सुमन्त्र आदिकों से अपने भृत्य हनुमत्, सुग्रीवादि बानरों की कीर्ति श्रीमुख से बखान की है। इस प्रकार भगवत् का भक्तों के विषय अनुराग और भक्तों की भगवत् में प्रीति प्रोत प्रोत है सो सम्पूर्ण जगत् जानता है। श्रीअग्रस्वामी कहते हैं कि दासों के गुण वर्णन करने से तथा सुनने से श्रीसीतापतिजी नित्यही बस होते हैं इससे वर्णन करना चाहिये। श्लोक भागवते। "निरपेक्षं मुनि शांतं निर समदर्शनम् । अनुव्रजाम्यहं नित्य पूयेयेत्यघिरेणुभिः । साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं वहम् । मदन्यं तेन जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥"