पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९४६

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९३७ - -mirmirman- भक्तिसुधास्वाद तिलक । नृसिंहरूप धारण किया और श्रीरघुनन्दनजी ने श्रीशवरीजी पर कैसी कृपा करके फल खाये तथा उनके चरणों से जल शुद्ध किया, और माता के समानमानि परमपद दिया।ये सब भक्त साखी दे रहे हैं। श्रीयुधिष्ठिरजी के राजसूय यज्ञ में श्रीयदुनाथ (कृष्ण) जी ने भक्तों के चरण धोये और जूठे पात्र उठाये, फिर पाण्डवों की विपत्ति नाश की, ऐसे ही श्रीचन्द्र- हासभक्त ने विष के पलटे विषया श्री पाई, इस प्रकार कृतयुग, त्रेता, दापर के भक्तों की कथा पुराणों में प्रसिद्ध है, और कलियुग में विशेष भक्तों के परची प्रगट जो इम (श्रीनाभास्वामी) ने गान किया है जैसे पृथ्वी राजको प्रभु ने द्वारका से आकर दर्शन दिया, नामदेव के हाथ से दूध पिया, कर्मा की खिचड़ी खाई, त्रिलोचनभक्त के घर में रहके चौदह महीने सन्तसेवा की, सदाव्रतीभक्त का बेटा मर गया जला दिया और फिर आ गया, इत्यादिक ( और आज भी श्रीहरिकृपा विशेष अलौकिक अनुभूत हो ही जाती है,)सो श्रीहरिकृषा में आस्तिक होकर चित्त में विश्वास धारणकर सुनो और भक्तिपथ में चलो। (अन्यफलस्तुति) (८३२) दोहा । (११) पादप पेड़हिं सींचते, पावै अँग अँग पोष। पूरबजा ज्यौं बरनते, सब मानियो संतोष ॥२०३॥ (११) वार्तिक तिलक । श्रीनामास्वामीजी ने जिन सन्तों के यश इस ग्रंथ में नहीं वर्णन किये उनसे तथा आगे होनेवाले सन्तों से प्रार्थना करते हैं कि जैसे वृक्ष के मूल को सींचने से उसके स्कंध शाखा आदिक सब अंग पुष्ट और हरित होते हैं ऐसे ही पूरवजा की नाई अर्थात् दोपहर के पीछे की छाया जैसे छोटी से बढ़ती जाती है वैसे ही अपनी प्रीति श्रद्धा बढ़ाके आपके पूर्वज श्रीआचार्य गुरुजन मूल पुरुषों के यश जो मैंने वर्णन किये उसी में आप सब भी अपने तई सम्मिालत समझकर संतोष मानिये और मुझ पर प्रसन्न हूजिये।