पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९४७

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44 + + M a + ++ ९२८ श्रीभक्तमाल सटीक । (८३३) दोहा । (१०) भक्त जिते भूलोक मैं, कथे कौन पैजाय। समुंद पान श्रद्धा करै, कहँ चिरि पेट समायें ॥२०४॥(१०) वात्तिक तिलक । भूलोक में जितने भगवद्भक्त हैं वे सब किससे कहे जा सकते हैं । जैसे सब समुद्रो का जल पी लेने की कोई चिरि (चिड़िया) श्रद्धा करे तो क्या यह हो सकता है ? ॥ (८३४) दोहा । (९) श्रीमूर्ति सबवैष्णवलघु, दीरघगुणनि अगाध। आगे पीछे बरनते, जिनि मानौ अपराध ॥२०५॥ (6) ___ वात्तिक तिलक । श्रीनामास्वामीजी सब वैष्णवों से प्रार्थना करते हैं कि "आप सब श्रीभगवत्, शालग्रामजी की मूर्ति हैं, सो जैसे शालग्रामजी की मूर्ति और श्रीतुलसीदल बड़ा होय या छोटा हो पर उनका गुण माहात्म्य सबों का ही प्रथाह है, ऐसे ही, आप सबका गुण माहात्म्य अथाह है, किसी का आगे किसी का पीछे वर्णन हुआ है, सो कृपा करके यह पहिले पीछे वर्णन का दोष न मानियेगा, क्षमा कीजियेगा ॥" (८३५) दोहा । (८) फल की सोभा लाभ तरु,तरुसोभा फल होय। गुरुशिष्यकी कीर्ति मैं,अचरज नाहीं कोय॥२०६॥(८) वात्तिक तिलक । जैसे वृक्ष में लगे रहने से फलों को शोभा मिलती है, और फलों से वृक्ष को भी अधिक शोभा प्राप्त होती है, ऐसे ही गुरु शिष्य की कीर्ति में है अर्थात् गुरुरूपी वृक्ष से फलरूपी शिष्य को कीर्ति शोभा प्राप्त होती है और फलरूपी शिष्यों से गुरु वृक्ष को अधिक कीर्ति शोभा मिलती है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं । दोनों पिछले छप्पय भी देखिये ॥ १ "समुंद" समुद्र, सागर ।।