पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९४८

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Httamataram- भक्तिसुधास्वाद तिलक । (३६) दोहा । (७) चारि जुगन मैं भगत* जे, तिनके पद की धूरि। सबंसु सिर धरि राखिहौँ, मेरो जीवन मूरि॥२०७॥ (७) वात्तिक तिलक। चारों युगों में जो भगवद्भक्त हुए हैं, और होंगे, उन सबों के चरणों की धलि मैं अपने सीस पर धारण कर लूँगा, क्योंकि वही मेरा धन माण सर्वस्व और जीवनमूरि है। "सियकन्त ! तेरी मोहनि मूरत पै वारी हूँ। तुम मेरे प्राणनाथ मैं दासी तुम्हारी हूँ॥" (८३७) दोहा । (६) जग कीरति मंगल उ, तीनो ताप नसायँ। हरिजन को गुण बरनते, हरिहृदि अटल बसाय २०८(६) इसे मनस्थ कीजिये। वात्तिक तिलक। श्रीहरिजनों के गुण वर्णन करना परम साध्य है, जो कोई हरि- भक्तों का गुण वर्णन करता है उसके तीनों ताप नाश होते हैं और जगत् में कीर्ति तथा मंगल का उदय होता है, और उसके हृदय में श्रीहरि अचल निवास करते हैं। दो “सवहि कहावत राम के, सबहि राम की श्रास । राम कह जेहि "पापनों", तेहि भजु तुलसीदास ॥" (८३८) दोहा । (५) हरिजन को गुण बरनते, जो करै असूया आय। इहां उदर बाट्टै बिथा, औ परलोक नसाय ॥२०६ ॥ (५) वात्तिक तिलक । श्रीहरिजनों ने गुण यश वर्णन करने में श्रीभक्तमाल की कथा ॐ श्रीलालदासजी यमुनातटनिवासी के चरणों में दाराशिकोह पुण्यपुंज को बड़ी श्रद्धा थी। (आलमगीर को शाप सा दिया था) ॥