पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९५२

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+P artmeHANIMHARTMENT भक्तिसुधास्वाद तिलक। संतनि के अंत कौन पावे जोई गावै हिय आई है। घट बढ़ जानि अपराध मेरो क्षमा कीजै साधु गुण पाही यह मानि मैं सुनाई है ॥ ६३३ ॥ वात्तिक तिलक श्री ५ प्रियादासजी कहते है कि- मेरे गुरुदेवजी (श्रीमनोहरदासजी) स्वयं बड़े कवि और भारी रसिक तो थे ही, वरन् ऐसे महात्मा थे कि अापने जिस जिसको कृपा करके कविताई तथा रसिकाई दी, उस उसने भी पाई, तात्पर्य यह है कि ये दोनों वस्तुएँ श्रीगुरुदेवप्रसाद से मुझे भी मिली, हृदय में सरसता के नये नये उत्साह हुए। श्रीगुरुदेवजी के हृदयरूपी रंगभवन में श्रीराधिकारमणजी इस प्रकार विराजते थे कि जैसे दर्पण में रूप का प्रतिबिंब विराजता है । आप रसिकमण्डली के मध्य में विराजमान हो- कर जब रसराज (शृङ्गार) कहते थे, तब सब सजन सुनके आपके मुख की ओर देख देख सुख से फूल जाते थे। श्रीलालजी ने तो अपने जनों के मन हर लेने से “मनोहर" नाम पाया, पर मेरे गुरुभगवानजीने श्री- मनोहरलाल का भी मन हर लिया, इससे सच्चे “मनोहरराय"थे ॥६३०॥ अब टीकाकार दो चरणों में तो परोक्ष और दो चरणों में प्रत्यक्ष विनय सज्जनों से करते हैं कि---जानिये कि इन्हीं श्रीमनोहरराय के दासों के दास का दास पियादास है कि जिसने श्रीभक्तमाल की यह सुख देनेवाली टीका बखान की है, और जिसका मन श्रीगोवर्द्धननाथजी के हाथों में पड़ गया, इसी से श्रीवृन्दावन में वास करके यह भगवत् भागतों की मिलित लीला जिसने ( मुझ प्रियादास ने) गान की । सो, मैंने जिस प्रकार सन्तों के मुख से सुना वैसा ही अपनी मति के अनुसार गाया। सन्तों के चरित्र का अन्त कौन पा सकता है? कि सम्पूर्ण गान करें, जितनी हृदय में आई उतनी कथा मैंने गान की (गाई)। सन्तों की इन कथाओं के कहने में जो घटी बढ़ी हो गई हो सो मेरा अपराध आप कृपा करके क्षमा कीजियेगा। क्योंकि । साधु लोग केवल गुणों ही को ग्रहण करते हैं, अवगुण में दृष्टि नहीं