पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९६९

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- -- - - - ९५० श्रीभक्तमाल सटीक । प्रेम पराग को त्यों ब्रजबल्लभ गन्ध मनोहर है जग छायो। पावनि भक्तन को गुन गाथ की माल अनूपम नाभा बनायो॥६॥ दो० भक्त नारायण भक्त सब, धरे हिये दृढ़ प्रीति। बरने याची भाँति सो, जैसी जाकी रीति ॥ "श्रीहनुमत् जन्म विलास" में नामानुरागी मुंशीराम अम्बेसहायजी ने लिखा है कि- चौपाई। "एक दिवस, हरि हररस पागे । योगाभ्यास करन तहँ लागे। नैन मुंदि बैठे गुणसागर। तपनिधान कपिवंश दिवाकर । वह्यो प्रस्वेद शरम अति कीन्हा । गुप्तमेव गिरिनायक चीन्हा॥ सो श्रमविन्दु ईश गहि लीन्ही । जगतारनकी इच्छा कीन्ही ॥ शिवानाथ तेहि राख्यो गाई । यह प्रसङ्ग जाना नहिं कोई ॥ हे मुनिगण । हे तपवलरासा। यहाँ भविष्य सुनो इतिहासा॥ हैहै जब कलिकर परचारा। बीजै भक्तिभाव आचारा ॥ तब गिरीश सो बिन्दु सुहाई । नभमगतजिहिं देव सुखदाई ॥ दो० "गहै भूमि बरबिन्दु सो, हरि जन काज विचार । उपजै ताते रूप शुभ, भक्ति योग आगार ॥ नैन नूदि बैठे कपी, यहिते होइ अनैन । "हनुमतवंशी" विमल मति, योग भक्ति तप ऐन ॥ सो अयोनिजा, योगधन, जाको वर्ण न ज्ञात । स्वयं सिद्ध, पातक विगत, जग में हो विख्यात ॥ 'भक्तमाल अद्भुत रच, पूरै जन मन काम । 'नाभा 'नाभा' सब कहैं, 'नभोभृज' हो नाम ॥" स्वामी अनन्त श्रीरामानन्दजी महाप्रभु के प्रशिष्य तथा श्री- अनन्तानन्दजी के शिष्य श्रीकृष्णदासपयहारीजी के कृपापात्र श्री १०८ अग्रदासजी तथा श्रीकोल्हजी ने एक दिन किसी वन के मध्यमार्ग में एक पाँच वर्ष के अन्धे बालक को देखा, जिसके माता पिता कौन थे सो कैसे जाना जाय ? पर यह निश्चय होता है कि महाघोर अकाल के कारण उन्होंने उन्हें अनाथ छोड़कर चल देने