पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९७०

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९५१ +- + -+-+ -+rematur e भक्तिसुधास्वाद तिलक । का साहस किया अतएव निर्दयी कहलाना अंगीकार किया ।। ___ महात्माओं ने उन्हें वानर वा हनुमानवंशीय लिखा है और महाराष्ट्र वा लांगूली ब्राह्मण श्रीरामदासजी के भाई के वंश में उनका उद्भव वर्णन किया है, किसी किसी ने उन्हें 'डोम जाति का लिखा है जो जाति उस देश में उत्तम भाद, चारण, तथा कत्थक की सी है (इधर का सा नीच बँसफोड़ डोम नहीं), किसी महात्मा ने उन्हें अयोनिज लिखा है और श्रीहनुमानजी का अंशावतार बताया है। किसी ने ब्रह्माजी के अवतार श्रीलाखानी भक्तकी जाति का कहा है । (पृष्ठ ४७५१ देखिये) अस्तु, श्रीहरिभक्तों की जाति पांति वक्तव्य नहीं है। उक्त दोनों महानुभाव वहाँ रुके। असहाय बालक देख उन्हें “लागि दया कोमल चित संता" अतएव उन लोगों ने कृपादृष्टि की । सच कहा है “सन्त विशुद्ध मिलहिं परि ताही । चितवहिं राम कृपा करि जाही ॥" दोनों महानुभावों ने पूछा “बालक ! तुम कौन हो?" उत्तर मिला "महाराज ! आप इस पंचभूत रचित क्षणभंगुर शरीर को पूछते हैं ? वा परमात्मा के करुणापात्र अविनाशी जीवात्मा को ?” पाठक ! होनहार विस्वान के होत चीकने पात ।) "शारद दारु नारि सम स्वामी राम सूत्रधर अन्तर्यामी ॥" उक्त महानुभावों ने उन पर श्रीहरिकृषा होनेवाली समझ, अपने कम- एडलु के जल के बींटे से बालक की आँखों में ज्योतिप्रदान किया और अपनी "गलता"गादी में लाकर श्रीरामकृपा से सन्तों की सीथ प्रसादी तथा चरणामृत पाने को बताकर, भजन के समय पंखा करने की सेवा दी, नारायणदास 'नाभा' पुकारे जाने लगे । सन्तों के चरणोदक तथा सीथ प्रसादी से जो पाला जाय एवम् महानुभाव की सेवा कैंकर्य का सौभाग्य जिसको हो उस भागवत कृपापात्र महाभाग्य भाजन का कहना ही क्या है । ऐसे भागवतकृपा की जय तथा हरिकृपा की बलिहारी। __ एक समय श्रीअप्रस्वामीजी मानसी भावना में निमग्न थे, और आप (श्री नाभाजी) नियमानुसार पंखामल रहे थे। इतने में श्रीस्वामीजी