पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९७१

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श्रीभक्तमाल सटीक । महाराज के एक चेले ने, (जो समुद्र पर एक जहाज में जा रहा था जहाज के रुक जाने से विकल हो भारत वाणी से पुकारते हुए, श्री अग्रदेव महाराज का ध्यान किया। श्रीरामकृपाभाजन नाभाजी अपने महा प्रभुजी की अनुपम रहस्य श्रीसेवा में यों विघ्न श्रा पड़ना सह न सके, कृपापूर्वक उसी पंखे के वायुबल से उन्होंने जहाज को चला दिया, और श्रीमहाराजजी से प्रार्थना की कि प्रभो ! दीनबन्धो । वह बोहित तो भापकी कृपा से ही आपदा से बचकर कहीं का कहीं निकल गया और दूर जा रहा, अब श्राप, अपने श्रीचित्त को उधर न ले जाकर, शान्तिपूर्वक स्वकार्य में तत्पर रहें और पुनः उसी अनुपम भावना में लगें । यह सुन नेत्र उघार, उनकी ओर निहार, श्रीस्वामी ने पूछा “कौन बोला?" आपने (श्री १०८ नाभाजी ने) हाथ जोड़ विनय किया और कहा कि “नाथ । वही शरणागत बालक, जिसे आपने सीथप्रसाद से कृपा पूर्वक पाला है।" इतना सुनते ही आप नवीन पाश्चर्य में आकर विचारने लगे कि "भगवत् भागवत कृपा से इसकी यहाँ तक पहुँच हो गयी!" और साथ ही श्रीस्वामीजी के मन में आनन्द भी छा गया कि अपना लगाया वृक्ष यों फूलने फलने लगा। श्री १०८ अग्रदेवजी ने आपके हाथ से पंखा ले लिया और यह आज्ञा दी कि "वत्स ! तुझ पर भक्तों सन्तों का अनुग्रह और प्रभाव हुश्रा, अतः तू श्रीहरिभक्तों का चरित्र गान कर ॥" __ अापने सादर निवेदन किया "प्रभो भगवद्गुण तो उलटा सीधागा लेना इतना कठिन नहीं है, पर भागवतों का यश वर्णन करना तो महा कठिन है।" श्री १०८ स्वामीजी महाराज ने समझाया कि "पुत्र। जिनने तुझे सागर में बोहित और मेरे हृदय में श्रीस्वरूप दिखा दिया, वे ही तुझे अपना तथा और और महानुभावों का अलौकिक एवम् पवित्र चरित्र दिखा देंगे। सो तू अब भागवतयश कह ही चल ॥" ऐसा वरदानात्मक श्रीवचन सुनके आप उद्यत हो गये । और आपने "श्रीभक्तमाल" को २१४ छन्दों में रच डाला। जिसमें चारों युगों के भक्तों का पुनीत यश वर्णित है ।