पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९७२

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HOMEngHINMEHomemamIIMMER भक्तिसुधास्वाद तिलक । ९५३ श्रीकान्हरदासजी के भण्डारे महामहोत्सव में संवत् १६५२ में बहुत महानुभाव इकट्ठे थे। वहीं सबों ने मिलकर आपको “गोस्वामी" की पदवी दी। श्रीभक्तमालजीका बनना' विज्ञजनोंने ("संवत १६३१ के पीछे और संवत् १६८० के पहले"), १६४६ के लगभग निश्चय किया है। आपके परमधाम गमन का समय महात्माओं से १७१६ सुना गया है। श्रीप्रियादासजी ने जो श्रीनाभा स्वामीजी की आज्ञा से १७६६ में टीका बनाई, वह अाज्ञा (पचासवर्ष पीछे) "ध्यान के समय हुई थी।" श्रीभक्तमाल ग्रन्थ की प्रशंसा किस से हो सकती है। इसके विषय में जो कुछ कहा जाय वह थोड़ा ही है। "बिना 'भक्तमाल भक्तिमणि अति दूर है।” एक तो इसमें भक्तों की गुणावली है। दो० "सब सन्तन निर्णय कियो, श्रुति, पुराण, इतिहास । भजवे को दो सुघर हैं, की हरि, की हरिदास ॥" तिस पर इसके रचयिता स्वयम् परम भक्त ठहरे ॥ पद्य होने के कारण श्रीमियादासजी की टीका सर्वसाधारण की समझ में नहीं आती थी अतएव श्रीसीतारामशरण भगवान् प्रसादजी ने सन्त चरित्र जानने की सुगमता के लिये तथा अपने आनन्द के निमित्त गद्य में "भक्तिसुधास्वाद” नामक तिलक लिखा है। यह पुस्तक अपने नाम के अनुसार ठीक बनी है तथा पाठकों के हृदय में पीयूषधारा प्रवाहित करती है। इसमें सन्देह नहीं । भक्ति तथा प्रेम की जय मनाता हुधा मैं इस प्रबन्ध को समाप्त करता हूँ॥ गोस्वामि श्रीनाभाजी। "श्रीनाभा नभ उदित सास, भक्तमाल सो जान । रसिक मनन्य चकोर है, पान करें रसखान ॥" (षट्पदी) "कमलनाभ अज विष्णु के, त्यो अमनाभ नाभा भयो । उन इरि पाना पाय सकल ब्रह्माण्ड उपायौ। भदोहे १७, कुंडलिया १, छप्पय १९६ सब छन्द २१४