पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९७३

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श्रीभक्तमाल सटीक । इन गुरु प्राज्ञा पाय भक्तमाला शुचि गायौ । चार युगन के भक्त गुणन की गूंथी माला । अंगहि अंग विचित्र बनी जू परम रसाला ॥ लघु मोहन अचरज कहा सीतापति जापै.जयौ। कमलनाभ अज विष्णु के त्यो अग्रनाम नाभा भयौ॥" श्रीभक्तमाल के कर्ता श्रीअप्रस्वामी के शिष्य श्रीनामा स्वामीजी श्रीरामानन्दीय वैष्णव थे और भक्तिमार्ग के प्रचारक । जिस किसी पापी में श्रीभगवत् की भक्ति हो उसी के आदर करनेवाले थे । नीच जाति और भक्तिरहित उच्च जाति अभिमानी दोनों ही को बराबर समझते । परमहंस संहिता श्रीमद्भागवत में श्रीशुकदेवजी परमहंस का भी यही सिद्धान्त है। "श्रीधर श्रीभागीत में परमधरम निर्णय किया।" भगवत-भक्तों को ही अपना पूज्य शिरोमणि मानते थे। .. चौपाई। "जाति पाँति पूछे नहिं कोई । हरि को भने सो हरिका होई ॥" “कह रघुपति सुनु भामिनि पाता । मानउँ एक भगतिकर नाता ॥" दो०,"अन कहे तिहुँ लोक में हरि उर धर सोई बड़ो॥" चौपाई। "पर हित बस जिनके मन माही । तिन कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥" दो० "भक्ति भक्त भगवन्त गुरु चतुर नाम बघु एक ॥" जीवमात्र को हरिसन्मुख करना यही आपका उद्देश्य था और यही श्रीरामानन्द स्वामीजी के सम्प्रदाय का मत है ॥ चौपाई। "कर नित करहिं रामपद पूजा । रामभरोस. हृदय नहिं दुजा ॥ भगति हीन नर सोहइ कैसा । विनु जलं बारिद देखिय जैसा ।। सोह सैलगिरिजा गृह आये । जिमि नर रामभक्ति के पाये ॥" श्लो० "शतकोटिमहामन्त्राश्चित्तविभ्रमकारकाः। एक एव परोमन्त्रो 'राम' इत्यक्षरद्वयम् ।" पतितपावन नाम 'श्रीराम की जय इति श्रीभक्तिसुधास्वाद विलक समाप्त ॥ श्रीसीतारामार्पणमस्तु ॥