पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९८

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HIMATINindramu ++ m mmmmerupermanent- mor+Hunga --000194 44 भक्तिसुधास्वाद तिलक । सिया दुलारे, पवनसुत ! मम गुरु, अंजनिश्त । सतसंगति, निज चरण रति, देहू, सीयापयदूत ॥ २॥ श्रीसियपिय पदकमल, अविरल अमल सनेहु । युगल चरण कैंकर्य पुनि, मोहि कृपा करि देहु ॥ ३ ॥ “वीरकला श्रीमारुती", तुमहि निहोरि निहोरि । रूपकला सियचेरि लघु, विनय करति कर जोरि ॥४॥ चौपाई। महावीर विनहीं हनुमाना। राम जासु जस आपु बखाना ॥ सीताराम चरन रति मोरे । अनु दिन बढ़ौं अनुग्रह तोरे॥ (१८)श्रीजाम्बवानजी। श्रीजाम्बवानजी श्रीब्रह्माजी के अवतार हैं । श्रीप्रभु तथा सुग्रीवजी के मन्त्रीवर हैं। लंका के युद्ध में बुढ़ापे में भी बड़ा पराक्रम ऋक्षपतिजी का प्रसिद्ध है। और युवावस्था में तो-- दो. “बलि बाँधत प्रभु बादे, सो तनु बरनि न जाइ । उभय घड़ी महँ दीन्ह मैं, सात प्रदक्षिण धाइ॥" श्रीमद्भागवत में वर्णित है कि इनने बहुत बूढ़ेपन में भी, श्रीकृष्ण भगवान के साथ बड़ा पराक्रम दिखाया, जब तक कि इनने आपको पहिचाना न था | फिर तो अपनी कन्यारत्न "जाम्बवती को भगवत् को प्रदान कर दिया। (१६)श्रीसुग्रीवजी। श्रीसुग्रावजी, श्रीसूर्य भगवान के पुत्र हैं । श्रीसुकण्ठजी से प्रभु ने श्रीअग्निदेव को साक्षी करके मित्रता की। आपने जैसी सख्यता सम्पत्ति आपको प्रदान किया और निबाहा, सो श्रीवाल्मीकीय रामायण ही के देखनेवालों को विदित है। कपीश्वरजी सब ऋक्षों और कपियों के राजा थे। और श्रीजानकी- जीवनजी के तो प्राण से भी प्रिय "पंचम भ्राता" ही थे।