पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९८२

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श्रीभक्तमाल-माहात्म्य । maratapmarath -w- a-ramera manaramete श्रीभगवद्भक्लेम्मो नमः अथ श्रीभक्तमाल-माहात्म्य वृन्दावनवासी श्रीवैष्णवदासजी प्रणीत। दो० वन्दौं भक्तमाल भल, भक्तान यश मुद मूल । जो अति प्रियभगवंतों , हरन घोर त्रय शूल ॥१॥ रसिकरूप हरिरूप पुनि, श्री चैतन्य स्वरूप। हृदय कूप अनुरूप रस, उमल्यो बहे अनूप ।। २॥ श्री नारायणदास जी, कीन्ही भक्तसुमाल। पुनि ताकी टीका करी, प्रियादास सुरसाल ॥३॥ ताको साधुनि के कहे, करौं महात्म बखानि । लै ग्रंथन मत साधुनिक, परचे रस की खानि ॥ ४ ॥ भक्तनि की महिमा कही, कपिल ऋषी भगवान । नारायण अरु शौनकहु, मैं का करौं बखान ॥ ५ ॥ सबै शाब हैं आरसी, जन महिमा प्रतिबिंव। रति दृग बिन सूझै नहीं, ज्यों अंधहि तर निंब ॥ ६॥ और शास्त्र के श्रवण के, फल श्रीहरि निर्धार। ते यहि के श्रोता अहो, याते महिम अपार ॥ ७॥ जोइ वाहै हरिप्राप्तिको, सुनै सोई हरषाय । यामें दुइ इतिहास हैं, सुनिये चित्त लगाय ॥ ८॥ चौपाई। प्रियादास के मित्र ललामा । श्रीगोवरधननाथ सुनामा ॥१॥ तिन श्रीभक्तमाल पदिलए। साभरि की रामत को गए ॥ २॥ मग में श्री गोविंद देव के । दरश हेतु गे सुरन सेव के ॥३॥ तहँ श्री राधारमन पुजारी। हरिपियरसिकअनन्यसुभारी ॥४॥ सो तिन कहँ राखे सुखसाजा । भक्तमाल सुनवे के काजा ॥ ५ ॥ होन लगी तहँ भक्कसुमाला । जहाँविराजत गोविंदलाला ।। ६ ।। कछुक दिनन तो बाँचत भए । पुनि सामरि के रामत गए ।। ७॥ यहै कौल कीन्हों निरधारा । पूरन करिही फिरती वारा ॥८॥