पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१०३

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PANEERANAHARARHAY HDVITA शांकरभाष्य अध्याय ३ www मयि वासुदेवे परमेश्वरे सर्वज्ञे सर्वात्मनि मुझ सर्वात्मरूप सर्वज्ञ परमेश्वर वासुदेवमें सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य निक्षिप्य अध्यात्मचेतसा | विवेकबुद्धिसे सब कर्म छोड़कर अर्थात् 'मैं सब विवेकबुद्धया अहं कर्ता ईश्वराय भृत्यवत् कर्म ईश्वरके लिये सेवककी तरह कर रहा हूँ इस करोमि इति अनया बुद्धथा, बुद्धिसे सब कर्म मुझमें अर्पण करके, किं च निराशीः त्यक्ताशीः निर्ममो ममभावः तथा निराशी----आशारहित और निर्मम यानी च निर्गतो यस्य तब स त्वं निर्ममो भूत्वा जिसका मेरापन सर्वथा नष्ट हो चुका हो उसे युध्यस्व विगतज्वरो विगतसंतापो विगतशोकः निर्मम कहते हैं ऐसा होकर तू शोकरहित हुआ सन् इत्यर्थः ॥३०॥ युद्ध कर अर्थात् चिन्ता-संतापसे रहित हुआ युद्ध कर ॥३०॥ यद् एतत् मतं कर्म कर्तव्यम् इति सप्रमाणम् 'कर्म करने चाहिये' ऐसा जो यह मत प्रमाण- उक्तं तत् तथा-- सहित कहा गया वह यथार्थ है ( ऐसा मानकर)- ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥ ३१ ॥ ये मे मदीयम् इदं मतम् अनुतिष्ठन्ति अनुवर्तन्ते जो श्रद्धायुक्त मनुष्य गुरुवरूप मुझ वासुदेव- मानवा मनुष्याः श्रद्धावन्तः श्रद्दधाना अनसूयन्तः | में असूया न करते हुए ( मेरे गुणोंमें दोष न देखते अस्या च मयि गुरौ वासुदेवे अकुर्वन्तः, हुए ) मेरे इस मतके अनुसार चलते हैं, वे ऐसे मुच्यन्ते ते अपि एवंभूताः कर्मभिः धर्मा- मनुष्य भी पुण्य-पापरूप कर्मों से मुक्त हो जाते धर्माख्यैः ॥ ३१॥ हैं ॥३१॥ ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥ ३२॥ ये तु तद्विपरीता एतत् मम मतम् अभ्य- परन्तु जो उनसे विपरीत हैं, मेरे इस मतकी सूयन्तो न अनुतिष्ठन्ति न अनुवर्तन्ते मे मतं निन्दा करते हुए इस मेरे मतके अनुसार आचरण सर्वेषु ज्ञानेषु विविधं मूढाः ते। सर्वज्ञान- नहीं करते, वे समस्त ज्ञानों में अनेक प्रकारसे मूढ़ विमूढान् तान् विद्धि नष्टान् नाशं गतान् अचेतसः | हैं। सत्र ज्ञानोंमें मोहित हुए उन अविवेकियोंको अविवेकिनः ॥३२॥ तो तू नाशको प्राप्त हुए ही जान ॥३२॥ कस्मात् पुनः कारणात् त्वदीयं मतं न तो फिर वे (लोग) किस कारणसे आपके मतके अनुतिष्ठन्ति परधर्मम् अनुतिष्ठन्ति स्वधर्म च न करते हैं और स्वधर्माचरण नहीं करते ? आपके अनुसार नहीं चलते ? दूसरेके धर्मका अनुष्टान अनुवर्तन्ते, त्वत्प्रतिकूलाः कथं न बिभ्यति प्रतिकूल होकर आपके शासनको उल्लंघन करनेके दोषसे क्यों नहीं डरते, इसमें क्या कारण है ? स्वच्छासनातिक्रमदोषात्, तत्र आह- इसपर कहते हैं- .