पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/११५

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RAMERIOSEDHERARD शांकरभाष्य अध्याय ४ सर्वथा अपि * सर्वावस्थस्य मम ईश्वरस्य वर्त्म हे पार्थ ! मनुष्य सब तरहसे बर्तते हुए भी सर्वत्र मार्गम् अनुवर्तन्ते मनुष्याः । यत्फलार्थितया यसिन् स्थित मुझ ईश्वरके ही मार्गका सब प्रकारसे अनुसरण करते हैं, जो जिस फलकी इच्छासे जिस कर्मके कर्मणि अधिकृता ये प्रयतन्ते ते मनुष्या अधिकारी बने हुए ( उस कर्मके अनुरूप ) प्रयत्न उच्यन्ते हे पार्थ सर्वशः सर्वप्रकारैः॥१।। करते हैं वे ही मनुष्य कहे जाते हैं ॥११॥ यदि तव ईश्वरस्य रागादिदोषाभावात् । यदि रागादि दोषोंका अभाव होने के कारण सभी सर्वप्राणिषु अनुजिघृक्षायां तुल्यायां सर्वफल- प्राणियोंपर आप ईश्वरको समान है एवं आप सब फल देनेमें समर्थ भी हैं, तो फिर सभी मनुष्य प्रदानसमर्थे च त्वयि सति, वासुदेवः सर्वम् इति मुमुक्षु होकर--यह सारा विश्व वासुदेवस्वरूप है- ज्ञानेन एव मुमुक्षवः सन्तः कस्मात् त्वाम् एव इस प्रकारके ज्ञानसे केवल आपको ही क्यों नहीं सर्वे न प्रतिपद्यन्ते इति शृणु तत्र कारणम्- भजते ? इसका कारण सुन- काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः । क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ १२ ॥ काङ्क्षन्तः अभीप्सन्तः कर्मणां सिद्धिं फल- कमोंकी सिद्धि चाहने वाले अर्थात् फल-प्राप्ति- निष्पत्ति प्रार्थयन्तः, यजन्त इह असिन् लोके की कामना करनेवाले मनुष्य इस लोकमें इन्द्र, अग्नि देवता इन्द्राग्न्यायाः- आदि देवोंकी पूजा किया करते हैं । 'अथ योऽन्यां देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहम- श्रुतिमें कहा है कि जो अन्य देवताकी इस भावसे स्मीति न स वेद यथा पशुरेवं स देवानाम् (बृ० (उपासक) दूसरा हूँ वह कुछ नहीं जानता, जैसे उपासना करता है कि वह (देवता)दूसरा है और मैं उ०१।४।१०) इति श्रुतेः। पशु होता है वैसे ही वह देवताओंका पशु है।' तेषां हि मिन्नदेवतायाजिनां फलाकाक्षिणां ऐसे उन भिन्न रूपसे देवताओंका पूजन करनेवाले फलेच्छुक मनुष्योंकी इस मनुष्यलोकमें (कर्मसे उत्पन्न क्षिप्रं शीघ्रं हि यस्मात् मानुषे लोके, मनुष्यलोके हुई) सिद्धि शीघ्र ही हो जाती है। क्योंकि मनुष्य- हि शास्त्राधिकारः। लोकमें शास्त्रका अधिकार है (यह विशेषता है)। क्षिप्नं हि मानुषे लोके इति विशेषणाद् 'क्षिप्रं हि मानुषे लोके' इस वाक्यमें क्षिन विशेषणसे भगवान् अन्य लोकों में भी कर्मफलकी अन्येषु अपि कर्मफलसिद्धि दर्शयति भगवान् । सिद्धि दिखलाते हैं । मानुषे लोके वर्णाश्रमादिकर्माधिकार इति पर मनुष्य-लोकमें वर्ण-आश्रम आदिके कर्मोंका विशेषः, तेषां वर्णाश्रमाद्यधिकारिकर्मणां फल- अधिकार रखनेवालोंके कोंकी कर्म जनित फल- अधिकार है, यह विशेषता है । उन वर्णाश्रम आदिमें सिद्धिः क्षिप्रं भवति कर्मजा कर्मणो जाता ॥१२॥ सिद्धि शीघ्र होती है ॥१२॥

  • यहाँ 'सर्वथापि' इस कथनसे भाष्यकारका यह अभिप्राय समझमें आता है कि कर्म-मार्ग, भक्ति-

मार्ग आदि किसी भी मार्गसे किसी भी देवताविशेषके आश्रित होकर बर्तनेवाले भी भगवान्के मार्गके अनुसार वर्तते हैं ( देखिये, गीता ९ । २३-२४)।