पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/११७

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RAN शांकरभाष्य अध्याय ४ हन्त तर्हि चातुर्वर्ण्यसादेः कर्मणः यदि चातुर्वर्ण्यकी रचना आदि कर्मके आप कर्ता कत त्वात् तत्फलेन युज्यसे अतो न त्वं नित्य- हैं, तब तो उसके फलसे भी आपका सम्बन्ध होता मुक्तो नित्येश्वर इति उच्यते---- ही होगा, इसलिये आप नित्यमुक्त और नित्यईश्वर भी नहीं हो सकते ? इसपर कहा जाता है--- यद्यपि मायासंव्यवहारेण तस्य कर्मणः यद्यपि मायिक व्यवहारसे मैं उस कमका कर्ता कर्तारम् अपि सन्तं मां परमार्थतो विद्धि हूँ, तो भी वास्तवमें मुझे तू अकर्ता ही जान; अकर्तारम् अत एव अव्ययम् असंसारिणं च तथा इसीलिये मुझे अव्यय और असंसारी ही मां विद्धि ॥१३॥ समझ॥ १३॥ . . येषां तु कर्मणां कर्तारं मां मन्यसे, परमार्थतः जिन कोका तू मुझे कर्ता मानता है, वास्तवमें तेषाम् अकर्ता एव अहं यतः- मैं उनका अकर्ता ही हूँ, क्योंकि- न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥१४॥ न मा तानि कर्माणि लिम्पन्ति देहाधारम्भ- मुझमें अहंकारका अभाव है इसलिये वे कर्म देहादि- कत्वेन अहङ्काराभावात् । न च तेषां कर्मणां की उत्पत्तिके कारण बनकर मुझे लित नहीं करते, और उन कोंके फलमें मेरी लालसा अर्थात् तृष्णा फलेषु मे स्पृहा तृष्णा । भी नहीं है। येषां तु संसारिणाम् अहं कर्ता इति अभिमाना, जिन संसारी मनुष्योंका कोंमें 'मैं कर्ता हूँ ऐसा कर्मसु स्पृहा तत्फलेषु च, तान् कर्माणि अभिमान रहता है, एवं जिनकी उन कर्मोंमें और उनके फलोंमें लालसा रहती है, उनको कर्म लिंक्ष लिम्पन्ति इति युक्तम्, तदभावात् न मां करते हैं यह ठीक है, परन्तु उन दोनोंका अभाव कर्माणि लिम्पन्ति । होनेके कारण वे (कर्म) मुझे लिप्त नहीं कर सकते। इति एवं यः अन्यः अपि माम् आत्मत्वेन इस प्रकार जो कोई दूसरा भी मुझे आत्मरूपसे अभिजानाति न अहं कर्ता न मे कर्मफले स्पृहा जान लेता है कि 'मैं कर्मोंका कर्ता नहीं हूँ' 'मेरी इति, स कर्मभिः न बध्यते । तस्य अपि कर्मफलमें स्पृहा भी नहीं है वह भी कर्मोंसे नहीं न देहाद्यारम्भकाणि कर्माणि भवन्ति बँधता अर्थात् उसके भी कर्म देहादिके उत्पादक इत्यर्थः ॥१४॥ नहीं होते ॥ १४ ॥ न अहं कर्ता न मे कर्मफले स्पृहा इति- मैं न तो कर्मोंका कर्ता ही हूँ और न मुझे कर्म- । फलकी चाहना ही है- एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । कुरु कमैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥१५॥