पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/११८

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श्रीमद्भगवद्गीता एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैः अपि अतिक्रान्तः ऐसा समझकर ही पूर्वकालके मुमुक्षु पुरुषोंने भी मुमुक्षुभिः, कुरु तेन कर्म एव त्वं न तूष्णीम् आसनं कर्म किये थे । इसलिये तू भी कर्म ही कर । तेरे लिये चुपचाप बैठ रहना या संन्यास लेना यह दोनों न अपि संन्यासः कर्तव्यः ही कर्तव्य नहीं है। तस्मात् त्वं पूर्वः अपि अनुष्ठितत्वाद् यदि क्योंकि पूर्वजोंने भी कर्मका आचरण किया है इस- अनात्मज्ञः त्वं तदा आत्मशुद्धयर्थं तत्त्वचित् लिये यदि तू आत्मज्ञानी नहीं है तब तो अन्तः- करणकी शुद्धिके लिये और यदि तत्त्वज्ञानी है तो लोक- चेत् लोकसंग्रहार्थं पूर्वैः जनकादिमिः पूर्वतरं संग्रहके लिये जनकादि पूर्वजोंद्वारा सदासे किये हुए कृतं न अधुनातनं कृतं निर्वर्तितम् ॥ १५ ॥ (प्रकारसे ही) कर्म कर, नये ढंगसे किये जानेवाले कर्म मत कर * ॥१५॥ तत्र कर्म चेत् कर्तव्यं त्वद्वचनाद् एव | यदि कर्म ही कर्तव्य है तो मैं आपकी आज्ञासे करोमि अहं किं विशेषितेन पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ही करनेको तैयार हूँ फिर 'पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्' विशेषण देनेकी क्या आवश्यकता है ? इसपर कहते इति, उच्यते यस्माद् महद् वैषम्यं कर्मणि, हैं कि कर्मके विषयमें बड़ी भारी विषमता है अर्थात् कथम्-- | कर्मका विषय बड़ा गहन है । सो किस प्रकार----- किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥१६॥ किं कर्म किं च अकर्म इति कक्यो मेधाविनः कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इस कर्मादिके अपि अत्र असिन् कर्मादिविषये मोहिता विषयमें बड़े-बड़े बुद्धिमान् भी मोहित हो चुके हैं, मोहं गताः । अतः ते तुभ्यम् अहं कर्म अकर्म च इसलिये मैं तुझे वह कर्म और अकर्म बतलाऊँगा प्रवक्ष्यामि यद् ज्ञात्वा विदित्वा कर्मादि मोक्ष्यसे | जिस कर्मादिको जानकर तू अशुभसे यानी संसार- अशुभात् संसारात् ॥ १६॥ से मुक्त हो जायगा ॥१६॥ न च एतत् त्वया मन्तव्यम्, कर्म नाम तुझे यह नहीं समझना चाहिये कि केवल देहादिकी देहादिचेष्टा लोकप्रसिद्धम् अकर्म तदक्रिया चेष्टाका नाम कर्म है और उसे न करके चुपचाप बैठ रहनेका नाम अकर्म है, उसमें जाननेकी बात ही तूष्णीम् आसनं किं तत्र बोद्धव्यम् इति । क्या है ? यह तो लोकमें प्रसिद्ध ही है । क्यों ( ऐसा नहीं समझना चाहिये ? ) इसपर कहते हैं- कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः । अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥१७॥

  • अर्थात् जिन कर्मोंसे तो अन्तःकरण ही शुद्ध होता है और न लोक-संग्रह ही होता है, ऐसे आधुनिक

(लौकिक) मनुष्योंद्वारा किये जानेवाले कर्म मत कर । कमात्, उच्यते-