पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/११९

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शांकरभाष्य अध्याय ४ कर्मणः शास्त्रविहितस्य हिं यस्मात् अपि अस्ति कर्मका-शास्त्रविहित क्रियाका भी (रहस्य) बोद्धव्यं बोद्धव्यं च अस्ति एव विकर्मणः प्रतिषिद्धस्य, जानना चाहिये, विकर्मका--शास्त्रबर्जित कर्मका भी तथा अकर्मणः च तूष्णीभावस्थ बोद्धव्यम् अस्ति (रहस्य) जानना चाहिये और अकर्मका अर्थात् इति त्रिषु अपि अध्याहारः कर्तव्यः । चुपचाप बैठ रहने का भी (रहस्य) समझना चाहिये । यस्माद् गहना विषमा दुर्ज्ञाना, कर्मण इति क्योंकि कर्मोकी अर्थात् कर्म, अकर्म और उपलक्षणार्थ कर्मादीनां कर्माकर्मविकर्मणां गतिः विकर्मको गति-उनका यथार्थ वरूप--तत्त्व बड़ा याथात्म्यं तत्त्वम् इत्यर्थः ॥ १७॥ गहन है, समझनेमें बड़ा ही कठिन है ।।१७|| किं पुनः तत्त्वं कर्मादेः यद् बोद्धव्यं कर्मादिका वह तत्त्व क्या है जो कि जाननेयोग्य वक्ष्यामि इति प्रतिज्ञातम् उच्यते । है, जिसके लिये आपने यह प्रतिज्ञा की थी कि 'कहूँगा' । इसपर कहते हैं-- कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः । स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥ १८ ॥ कर्मणि कर्म क्रियते इति व्यापारमानं । जो कुछ किया जाय उस चेष्टामात्रका नाम कर्म है । उस कर्ममें जो अकर्म देखता है, अर्थात् तस्मिन् कर्मणि अकर्म कर्माभावं यः पश्येत् कर्मका अभाव देखता है तथा अकर्ममें-शरीरादि- अकर्मणि च कर्माभावे कर्तृतन्त्रत्वात् प्रवृत्ति- की चेष्टाके अभावमें जो कर्म देखता है । अर्थात् कर्मका करना और न करना दोनों ही कर्ताके निवृत्त्योः वस्तु अप्राप्य एव हि सर्व एव अधीन हैं । तथा आत्मतत्त्वकी प्राप्तिसे पूर्व क्रियाकारकादिव्यवहारः अविद्याभूमौ एव कर्म | अज्ञानावस्थामें ही सब क्रिया-कारक आदि व्यवहार है, (इसीलिये कर्मका त्याग भी कर्म ही है *) यः पश्येत् पश्यति । इस प्रकार जो अकर्ममें कर्म देखता है। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तो योगी कृत्स्न- वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है, वह योगी है और कर्मकृत् समस्तकर्मकृत् च स इति स्तूयते । वह समस्त कर्मोको करनेवाला है, इस प्रकार कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म देखनेवालेकी स्तुति की कर्माकर्मणोः इतरेतरदशी। जाती है। ननु किम् इदं विरुद्धम् उच्यते 'कर्मणि अकर्म! पू०-'जो कर्ममें अकर्म देखता है और अकर्ममें कर्म यः पश्येत् इति अकर्मणि च कर्म इति ।" न हि देखता है' यह विरुद्ध बात किस भावसे कही जा रही कर्म अकर्म स्थात् अकर्म वा कर्म तत्र विरुद्धं | है ? क्योंकि कर्म तो अकर्म नहीं हो सकता और अकर्म कथं पश्येद् द्रष्टा। कर्म नहीं हो सकता, तब देखनेवाला विरुद्ध कैसे देखे ?

  • कर्मोंका करना और उनका त्याग करना दोनों ही कर्ताके व्यापाराधीन हैं, जिसमें कर्ताका व्यापार है,

यह प्रवृत्ति हो चाहे निवृत्ति, वास्तवमें कर्म ही है, इसलिये अहंकारपूर्वक किया हुआ कर्मत्याग भी वास्तवमें कर्म ही हैं ।