पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१२०

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श्रीमद्भगवद्गीता ननु अकर्म एव परमार्थतः सत् कर्मवद् उ०--वास्तवमें जो अकर्म है वही मूढ-मति लोगोंको कर्मके सदृश भास रहा है और उसी तरह कर्म अवभासते मूढदृष्टेः लोकस्य तथा एवं अकर्मके सदृश भास रहा है, उसमें यथार्थ तत्त्व अकर्मवत् तत्र यथाभूतदर्शनार्थम् आह भगवान् देखनेके लिये भगवान्ने 'कर्मणि अकर्म यः पश्येत्' 'कर्मणि अकर्म यः पश्येत्' इत्यादि । अतो न इत्यादि वाक्य कहे हैं, इसलिये (उनका कहना) विरुद्ध नहीं है। क्योंकि बुद्धिमान् आदि विशेषण भी तभी विरुद्धम् । बुद्धिमत्त्वाद्युपपत्तेः च । बोद्धव्यम् सम्भव हो सकते हैं। इसके सिवा यथार्थ ज्ञानको ही इति च यथा भूतदर्शनम् उच्यते । जाननेयोग्य कहा जा सकता है (मिथ्या ज्ञानको नहीं)। न च विपरीतज्ञानाद् अशुभात् मोक्षणं तथा 'जिसको जानकर अशुभसे मुक्त हो स्यात् 'यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्' इति च उक्तम् । जायगा।' यह भी कहा है सो विपरीत ज्ञानद्वारा । (जन्म-मरणरूप) अशुभसे मुक्ति नहीं हो सकती । तस्मात् कर्माकर्मणी विपर्ययेण गृहीते! सुतरां प्राणियोंने जो कर्म और अकर्मको विपरीत- प्राणिभिः तद्विपर्ययग्रहणनिवृत्त्यर्थं भगवतो रूपसे समझ रक्खा है उस विपरीत ज्ञानको हटानेके वचनम् ‘कर्मणि अकर्म यः' इत्यादि । लिये ही भगवान्के 'कर्मण्यकर्म यः' इत्यादि वचन हैं। न च अत्र कर्माधिकरणम् अकर्म अस्ति कुण्डे | यहाँ 'कुण्डेमें बेरोंकी तरह' कर्मका आधार बदराणि इव न अपि अकर्माधिकरणं कर्म | अकर्म नहीं है और उसी तरह अकर्मका आधार कर्म अस्ति कर्माभावत्वाद् अकर्मणः । भी नहीं है क्योंकि कर्मके अभावका नाम अकर्म है। अतो विपरीतगृहीते एव कर्माकर्मणी इसलिये ( यही सिद्ध हुआ कि) मृगतृष्णामें लौकिकैः यथा मृगवृष्णिकायाम् उदकं शुक्ति- | जलकी भाँति एवं सीपमें चाँदीकी तरह लोगोंने कायां वा रजतम् । कर्म और अकर्मको विपरीत मान रक्खा है। ननु कर्म कर्म एव सर्वेषां न कचिद् पू०-कर्मको सब कर्म ही मानते हैं, इसमें कभी व्यभिचरति । | फेरफार नहीं होता। तत् न, नौस्थस्य नावि गच्छन्त्यां तटस्थेषु उ०-यह बात नहीं, क्योंकि नाव चलते समय अगतिषु नगेषु प्रतिकूलगतिदर्शनाद् दूरेषु नौकामें बैठे हुए पुरुषको तटके अचल वृक्षोंमें प्रतिकूल गति दीखती है अर्थात् वे वृक्ष उलटे चलते हुए दीखते चक्षुषा. असंनिकृष्टेषु गच्छत्सु गत्यभाव- | हैं और जो (नक्षत्रादि) पदार्थ नेत्रोंके पास नहीं होते, दर्शनात् । बहुत दूर होते हैं, उन चलते हुए पदार्थोंमें भी गतिका अभाव दीख पड़ता है अर्थात् वे अचल दीखते हैं। एवम् इह अपि अकर्मणि अहं करोमि इति इसी तरह यहाँ भी अकर्ममें (क्रियारहित आत्मा- कर्मदर्शनं कर्मणि च अकर्मदर्शनं विपरीतदर्शनं में) मैं करता हूँ यह कर्मका देखना और (त्यागरूप) कर्ममें (मैं कुछ नहीं करता इस ) अकर्मका देखना येन तन्निराकरणार्थम् उच्यते 'कर्मणि अकर्म ऐसे विपरीत देखना होता है, अतः उसका निरा- या पश्येत्' इत्यादि। करण करनेके लिये 'कर्मणि अकर्म यः पश्येत्' इत्यादि वचन भगवान् कहते हैं ।