पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१२१

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शांकरभाष्य अध्याय ४ तद् एतद् उक्तप्रतिवचनम् अपि असकृद् यद्यपि यह विषय अनेक बार शंका-समाधानोंद्वारा अत्यन्तविपरीतदर्शनभाविततया मोमुखमानो सिद्ध किया जा चुका है तो भी अत्यन्त विपरीत ज्ञान- लोकः श्रुतम् अपि असकृत् तत्त्वं विस्मृत्य : की भावनासे अत्यन्त मोहित हुए लोग अनेक बार सुने मिथ्याप्रसङ्गम् अवतार्य अवतार्य चोदयति इति ' हुए तत्त्वको भी भूलकर मिथ्या प्रसंग ला-लाकर शंका पुनः पुनः उत्तरम् आह भगवान् दुर्विज्ञेयत्वं करने लग जाते हैं, इसलिये, तथा आत्मतत्त्वको च आलक्ष्य वस्तुनः। दुर्विज्ञेय समझकर भगवान् पुनः-पुनः उत्तर देते हैं। 'अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयम्' 'न जायते म्रियते' श्रुति, स्मृति और न्यायसिद्ध जो आत्मामें काँका इत्यादिना आत्मनि कर्माभावः श्रुतिस्मृति- अभाव है वह भव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयम् न जायते नियते' इत्यादि श्लोकोंसे कहा जा चुका और न्यायप्रसिद्ध उक्तो वक्ष्यमाणः च । आगे भी कहा जायगा। तसिन् आत्मनि कर्माभावे अकर्मणि उस क्रियारहित आत्मामें अर्थात् अकर्ममें कर्म- कर्मविपरीतदर्शनम् अत्यन्तनिरूढम् । का देखनारूप जो विपरीत दर्शन है, यह लोगोंमें अत्यन्त खाभाविक-सा हो गया है। यतः किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र क्योंकि 'कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इस मोहिताः। विषयमें बुद्धिमान् भी मोहित हैं।' देहायाश्रयं कर्म आत्मनि अध्यारोप्य अर्थात् देह-इन्द्रियादिसे होनेवाले कोंका अहं कर्ता मम एतत् कर्म मया अस्य फलं आत्मामें अध्यारोप करके 'मैं कर्ता हूँ' 'मेरा यह कर्म है' 'मुझे इसका फल भोगना है' इस प्रकार भोक्तव्यम् इति च । (लोग मानते हैं।) तथा अहं तूष्णीं भवामि येन अहं निरायासः 'मैं चुप होकर बैठता हूँ जिससे कि अकर्मा सुखी स्याम् इति कार्यकरणाश्रय- परिश्रमरहित और कर्मरहित होकर सुखी हो जाऊँ? व्यापारोपरमं तत्कृतं च सुखित्वम् आत्मनि । इस प्रकार देह-इन्द्रियोंके व्यापारकी उपरामताका अध्यारोप्य न करोमि किंचित् तूष्णीं सुखम् करके 'मैं कुछ भी नहीं करता हूँ 'चुपचाप सुखसे और उससे होनेवाले सुखीपनका आत्मामें अध्यारोप आसम् इति अभिमन्यते लोकः । बैठा हूँ' इस प्रकार लोग मानते हैं । तत्र इदं लोकस्य विपरीतदर्शनापनयनाय लोगोंके इस विपरीत ज्ञानको हटानेके लिये आह भगवान् 'कर्मणि अकर्म यः पश्येत्' 'कर्मणि अकर्म यः पश्येत्' इत्यादि वचन भगवान्ने इत्यादि। कहे हैं। अत्र च कर्म कर्म एव सत् कार्यकरणाश्रयं यहाँ देहेन्द्रियादिके आश्रयसे होनेवाला कर्म कर्मरहिते अविक्रिये आत्मनि सर्वैः अध्यस्तं यद्यपि क्रियारूप है तो भी उसका लोगोंने कर्मरहित अविक्रिय आत्मामें अध्यारोप कर रक्खा है क्योंकि यतः पण्डितः अपि अहं करोमि इति मन्यते । शास्त्रज्ञ विद्वान् भी 'मैं करता हूँ' ऐसा मान बैठता है। तथा