पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१२२

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श्रीमद्भगवगीता अत आत्मसमवेततया सर्वलोकप्रसिद्ध अतः नदी-तीरस्थ वृक्षों में भ्रमसे प्रतिकूल गति कर्मणि नदीकूलस्थेषु इव वृक्षेषु गतिः प्राति- प्रतीत होनेकी भाँति अज्ञानसे आत्माके नित्य सम्बन्धी माने जाकर जो लोकमें कर्म नामसे प्रसिद्ध हो रहे लोम्येन अकर्म कर्माभावं यथाभूतं गत्यभावम् । हैं, उन कोंमें वस्तुतः नदी-तीरस्थ वृक्षों में गतिका इन वृक्षेषु यः पश्येत्, अभाव देखनेकी भाँति जो अकर्म देखता है अर्थात् कर्माभाव देखता है, अकर्मणि च कार्यकरणव्यापारोपरमे कर्मवत् तथा कर्मकी भाँति आत्मामें अज्ञानसे आरोपित आत्मनि अध्यारोपिते तूष्णीम् अकुर्वन सुखम् ! किये हुए शरीर इन्द्रिय आदिकी उपरामतारूप आस इति अहंकाराभिसंधिहेतुत्वात् तस्मिन् अकर्ममें, अर्थात् क्रियाके त्यागमें भी मैं कुछ न | करता हुआ चुपचाप सुखपूर्वक बैठा हूँ' इस अकर्मणि च कर्म यः पश्येत् । अहंकारका सम्बन्ध होनेके कारण जो कर्म देखता है यानी उस त्यागको भी जो कर्म समझता है । य एवं कर्माकर्मविभागज्ञः स बुद्धिमान इस प्रकार जो कर्म और अकर्मक विभागको पण्डितो मनुष्येषु स युक्तो योगी कृत्स्नकर्मकृत् (तत्त्वसे) जाननेवाला है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान्--- च सः अशुभात् मोक्षितः कृतकृत्यो भवति करनेवाला भी वही है अर्थात् वह पुण्य-पापरूप पण्डित है, वह युक्त----योगी है और सम्पूर्ण कर्म इत्यर्थः। अशुभसे मुक्त हुआ कृतकृत्य है। अयं श्लोकः अन्यथा व्याख्यातः कैश्चित्, कई टीकाकार इस श्लोककी दूसरी तरहसे ही कथम्, नित्यानां किल कर्मणाम् ईश्वरार्थे अनुष्ठी- व्याख्या करते हैं । कैसे ? ईश्वरके लिये किये जाने- यमानानां तत्फलाभावाद् अकर्माणि तानि वाले जो (पञ्च महायज्ञादि ) नित्यकर्म हैं, उनका उच्यन्ते गौण्या वृत्त्या । तेषां च अकरणम् कहे जाते हैं । ( इसी प्रकार ) उन नित्यक्रमों के न - फल नहीं मिलता इस कारण वे गौणी वृत्तिसे अक्रम अकर्म तत् च प्रत्यवायफलत्वात् कर्म उच्यते करने का नाम अकर्म है, वह भी पापरूप फलके देने- गोण्या एव वृत्त्या । वालाहोनेके कारण गौणरूपसे ही कर्म कहा जाता है। तत्र नित्ये कर्मणि अकर्म यः पश्येत् फला- जैसे कोई गौ व्यायी हुई होनेपर भी यदि दूधरूप भावात्, यथा धेनुः अपि गौः अगौः उच्यते फल नहीं देती तो वह अगौ कह दी जाती है, वैसे क्षीराख्यं फलं न प्रयच्छति इति तद्वत् । तथा ही नित्यकर्ममें, उसके फलका अभाव होने के कारण जो अकर्म देखता है और नित्यकर्मका न नित्याकरणे तु अकर्मणि च कर्म यः पश्येत् | करनारूप जो अकर्म है उसमें कर्म देखता है, नरकादिप्रत्यवायफलं प्रयच्छति इति । क्योंकि वह नरकादि विपरीत फल देनेवाला है। न एतद् युक्तं व्याख्यानम् एवं ज्ञानाद् यह व्याख्या ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार जाननेसे अशुभसे मुक्ति नहीं हो सकती अर्थात् जन्म- अशुभात् मोक्षानुपपत्तेः 'यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसे- मरणका बन्धन नहीं टूट सकता। अतः यह अर्थ मान लेनेसे भगवान्के कहे हुए ये वचन किजिसको जान- ऽशुभात् ।' इति भगवता उक्तं वचनं बाध्येत । कर तू अशुभसे मुक्त हो जायगा।' कट जायेंगे।