पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१२३

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शांकरभाष्य अध्याय ४ कथम् । नित्यानाम् अनुष्ठानाद् अशुभात् क्योंकि नित्यकर्मों के अनुष्ठानसे तो शायद स्यात् नाम मोक्षणं न तु तेषां फलाभावज्ञानात् । अशुभसे छुटकारा हो भी जाय, परन्तु उन नित्यकर्मों- का फल नहीं होता, इस ज्ञानसे तो मोक्ष हो ही नहीं न हि नित्यानां फलाभावज्ञानम् अशुभमुक्ति- सकता। क्योंकि नित्यकमोंका फल नहीं होता, फलत्वेन चोदितं नित्यकर्मज्ञानं वा । न च देनेवाला है ऐसा शास्त्रोंमें कहीं नहीं कहा और न यह ज्ञान या नित्यकर्मों का ज्ञान अशुभसे मुक्त कर भगवता एव इह उक्तम् । भगवान्ने ही गीताशास्त्र में कहीं ऐसा कहा है। एतेन अकर्मणि कर्मदर्शनं प्रत्युक्तम् । न इसी बुक्तिसे ( उनके बतलाये हुए) अकर्ममें कर्मदर्शनका भी खण्डन हो जाता है। क्योंकि यहाँ हि अकर्मणि कर्म इति दर्शनं कर्तव्यतया इह (गीतामें ) नित्यक्रमों के अभावरूप अकर्ममें कर्म देखनेको कहीं कर्तव्यरूपसे विधान नहीं किया, चोद्यते, नित्यस्य तु कर्तव्यतामात्रम् । केवल नित्यकर्मकी कर्तव्यताका विधान है। न च अकरणात् नित्यस्य प्रत्यवायो भवति इसके सिवा 'नित्यकर्म न करनेसे पाप होता है' इति विज्ञानात् किंचित् फलं स्यात् । न अपि ऐसा जान लेनेसे ही कोई फल नहीं हो सकता । और यह नित्यकर्मका न करनारूप अकर्म शास्त्रों में नित्याकरणं ज्ञेयत्वेन चोदितम् । कोई जाननेयोग्य विषय भी नहीं बताया गया है । न अपि कर्म अकर्म इति मिथ्यादर्शनाद् तथा इस प्रकार दूसरे टीकाकारोंके माने हुए 'कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्मदर्शन' रूप इस अशुभात् मोक्षणं बुद्धिमत्त्वं युक्तता कुलकर्म- मिथ्यादर्शनसे 'अशुभसे मुक्ति' 'बुद्धिमत्ता' 'युक्तता' 'सर्व-कर्म-कर्तृत्व' इत्यादि फल भी सम्भव नहीं और कृत्यादि च फलम् उपपद्यते स्तुतिः वा। ऐसे मिथ्याज्ञानकी स्तुति भी नहीं बन सकती। मिथ्याज्ञानम् एव हि साक्षाद् अशुभरूपं जब कि मिथ्याज्ञान स्वयं ही अशुभरूप है तब वह दूसरे अशुभसे किसीको कैसे मुक्त कर सकेगा ? कुतः अन्यसाद् अशुभात् मोक्षणम् , न हि तमः क्योंकि अन्धकार ( कभी ) अन्धकारका नाशक नहीं तमसो निवर्तकं भवति । हो सकता। ननु कर्मणि यद् अकर्मदर्शनम् अकर्मणि वा पू०-यहाँ जो कर्ममें अकर्म देखना और अकर्म- में कर्म देखना ( उन टीकाकारोंने ) बतलाया है,वह कर्मदर्शनं न तत् मिथ्याज्ञानं किं तर्हि गौणं मिथ्याज्ञान नहीं है किन्तु फलके होने और न होनेके फलभावाभावनिमित्तम् । निमित्तसे गौणरूपसे देखना है । न, कर्माकर्मविज्ञानाद् अपि गौणात् फलस्स उ०--यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि गौणरूपसे कर्मको अकर्म और अकर्मको कर्म जान लेनेसे भी अश्रवणात् । न अपि श्रुतहान्यश्रुतपरिकल्पनया कोई लाभ नहीं सुना गया। इसके सिवा श्रुतिसिद्ध बातको छोड़कर श्रुतिविरुद्ध बातकी कल्पना करनेमें कश्चिद् विशेषो लभ्यते। कोई विशेषता भी नहीं दिखलायी देती। !