पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१२५

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Marli शांकरभाष्य अध्याय ४ . न च निष्फलं विदध्यात् कर्म शास्त्रं दुःख- तथा शास्त्र भी निरर्थक कर्मों का विधान नहीं कर खरूपत्वाद् दुःखस्य च बुद्धिपूर्वकतया सकता, क्योंकि सभी कर्म (परिश्रमकी दृष्टिसे) दुःख- रूप हैं और जान-बूझकर (बिना प्रयोजन) किसी- कार्यत्वानुपपत्तेः । का भी दुःखमें प्रवृत्त होना सम्भव नहीं। तदकरणे च नरकपाताभ्युपगमे अनर्थाय तथा उन नित्यकर्मोको न करनेसे नरकप्राप्ति होती है, ऐसा शास्त्रका आशय मान लेनेपर तो यह एव उभयथा अपि करणे अकरणे च शास्त्रं मानना हुआ कि कर्म करने और न करनेमें दोनों निष्फलं कल्पितं स्यात् । | प्रकारसे शास्त्र अनर्थका ही कारण है, अतः व्यर्थ है। स्वाभ्युपगमविरोधः च नित्यं निष्फलं इसके सिवा, नित्यकर्मोका फल नहीं है, ऐसा अभ्युपगम्य मोक्षफलाय मानकर फिर उनको मोक्षरूप फलके देनेवाला कहनेसे उन व्याख्याकारोंके मतमें स्वचचोविरोध इति ब्रुवतः। भी होता है। तस्माद् यथाश्रुत एव अर्थः 'कर्मणि अकर्म सुतरां 'कर्मणि अकर्म यः पश्येत्' इत्यादि श्लोकका य" इत्यादेः, तथा च व्याख्यातः असाभिः | है और हमने भी उसीके अनुसार इस श्लोककी अर्थ जैसा (गुरुपरम्परासे) सुना गया है, वही ठीक श्लोकः॥१८॥ ! व्याख्या की है ॥ १८॥ कर्म इति .

। तद् एतत् कर्मणि अकर्मादिदर्शनं | उपर्युक्त कर्ममें अफर्म और अकर्ममें कर्म-दर्शनकी स्तूयते-- स्तुति करते हैं- यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ १६ ॥ यस्य यथोक्तदर्शिनः सर्वे यावन्तः समारम्भाः जिनका प्रारम्भ किया जाता है उनका नाम समारम्भ है, इस व्युत्पत्तिसे सम्पूर्ण कोका नाम कर्माणि समारभ्यन्ते इति समारम्भाः काम- | समारम्भ है । उपर्युक्त प्रकारसे 'कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म देखनेवाले जिस पुरुषके समस्त समारम्भ संकल्पवर्जिताः कामै तत्कारणैः च संकल्पैः । (कर्म) कामनासे और कामनाके कारणरूप संकल्पों- वर्जिता मुधा एव चेष्टामात्रा अनुष्ठीयन्ते, से भी रहित हो जाते हैं अर्थात् जिसके द्वारा बिना ही किसी अपने प्रयोजनके-यदि वह प्रवृत्तिमार्गवाला प्रवृत्तेन चेत् लोकसंग्रहार्थं निवृत्तेन चेत् है तो लोकसंग्रहके लिये और निवृत्तिमार्गवाला है तो जीवन-यात्रा-निर्वाहके लिये--केवल चेष्टामात्र ही जीवनमानार्थम्, क्रिया होती है, तं ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं कर्मादौ अकर्मादिदर्शनं तथा कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्मदर्शनरूप ज्ञानं तद् एव अग्निः तेन ज्ञानाग्निना दग्धानि ज्ञानाग्निसे जिसके पुण्य-पापरूप सम्पूर्ण कर्म दग्ध शुभाशुभलक्षणानि कर्माणि यस्य तम् आहुः हो गये हैं, ऐसे ज्ञानाग्नि-दग्ध-कर्मा पुरुषको ब्रह्मवेत्ता परमार्थतः पण्डितं बुधा ब्रह्माविदः ॥१९॥ जन वास्तवमें पण्डित कहते हैं ॥ १९ ॥

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