पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१२६

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एव। श्रीमद्भगवद्गीता यः तु अकर्मादिदर्शी सः अकर्मादिदर्शनाद् जो कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म देखनेवाला है, वह यदि विवेक होनेसे पूर्व कमोंमें लगा हुआ हो एव निष्कर्मा संन्यासी जीवनमानार्थचेष्टः तो भी कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्मका ज्ञान हो सन् कर्मणि न प्रवर्तते यद्यपि प्राग विवेकता जानेसे केवल जीवन-निर्वाहमात्रके लिये चेष्टा करता हुआ कर्मरहित संन्यासी ही हो जाता है, फिर प्रवृत्तः। उसकी कोंमें प्रवृत्ति नहीं होती। यः तु प्रारब्धकर्मा सन् उत्तरकालम् अर्थात् जो पहले कर्म करनेवाला हो और पीछे उत्पन्नात्मसम्यग्दर्शनः स्यात् स कर्मणि जिसको आत्माका सम्यक् ज्ञान हुआ हो, ऐसा प्रयोजनम् अपश्यन् ससाधनं कर्म परित्यजति पुरुष कोंमें कोई प्रयोजन न देखकर साधनोंसहित कर्मोंका त्याग कर ही देता है । स कुतश्चित् निमित्तात् कर्मयरित्यागासंभवे परन्तु किसी कारणसे कर्मोंका त्याग करना सति कर्मणि तत्फले च सङ्गरहिततया असम्भव होनेपर कोई ऐसा पुरुप यदि कर्मों में और उनके फलमें आसक्तिरहित होकर केवल लोकसंग्रहके खप्रयोजनाभावात् लोकसंग्रहार्थ पूर्ववत् लिये पहलेके सदृश कर्म करता रहता है तो भी निजका प्रयोजन न रहनेके कारण (वास्तवमें) वह कर्मणि प्रवृत्तः अपि न एव किंचित् करोति । कुछ भी नहीं करता। ज्ञानाग्निदग्धकर्मत्वात् तदीयं कर्म अकर्म क्योंकि ज्ञानरूप अग्निद्वारा भस्मीभूत हो जानेके एव संपद्यते इति एतम् अर्थ दर्शयिष्यन् आह कारण उसके कर्म अकर्म ही हो जाते हैं। इसी आशयको दिखानेकी इच्छासे भगवान् कहते हैं- त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥ २० ॥ त्यक्त्वा कर्मसु अभिमानं फलासङ्गं च यथो- उपर्युक्त ज्ञान के प्रभावसे कमोंमें अभिमान और क्तेन ज्ञानेन नित्यतृप्तो निराकाङ्क्षो विषयेषु। फलासक्तिका त्याग करके जो नित्यतृप्त है अर्थात् इत्यर्थः। विषय-कामनासे रहित हो गया है, निराश्रय आश्रयरहितः । आश्रयो नाम तथा आश्रयसे रहित है। जिस फलका आश्रय यदाश्रित्य पुरुषार्थ सिसाधयिषति, दृष्टादृष्टेष्ट- लेकर मनुष्य पुरुषार्थ सिद्ध करनेकी इच्छा किया करता है उसका नाम आश्रय है, ऐसे इस लोक और फलसाधनाश्रयरहित इत्यर्थः । परलोकके इष्टफल-साधनरूप आश्रयसे जो रहित है, विदुषा क्रियमाणं कर्म परमार्थतः अकर्म उस ज्ञानीद्वारा किये हुए कर्म बास्तवमें अकर्म एव तस्य निष्क्रियात्मदर्शनसंपन्नत्वात् । ही हैं क्योंकि वह निष्क्रिय आत्माके ज्ञानसे सम्पन्न है। तेन एवं भूतेन प्रयोजनाभावात् ससाधनं | अपना कोई प्रयोजन न रहनेके कारण ऐसे पुरुषको साधनोंसहित कर्मोंका परित्याग कर ही कर्म परित्यक्तव्यम् एव इति प्राप्ते देना चाहिये, ऐसी कर्तव्यता प्राप्त होनेपर भी,