पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१२७

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शांकरभाष्य अध्याय ततो निर्गमासंभवात् लोकसंग्रहचिकीर्षया उन कर्मोसे निवृत्त होना असम्भव होने के कारण लोकसंग्रहकी इच्छासे या श्रेष्ट पुरुषोंद्वारा की शिष्टविगर्हणापरिजिहीर्षया वा पूर्ववत् कर्मणि जानेवाली निन्दाको दूर करनेकी इच्छासे यदि (कोई अभिप्रवृत्तः अपि निष्क्रियात्मदर्शनसंपन्नत्वात् ज्ञानी ) पहलेकी तरह कमोंमें प्रवृत्त है तो भी वह निष्क्रिय आत्माके ज्ञानसे सम्पन्न होने के कारण न एवं किंचित् करोति सः ॥२०॥ वास्तवमें कुछ भी नहीं करता ॥२०॥ . i यः पुनः पूर्वोक्तविपरीतः प्राग एवं कर्मा- परन्तु जो उससे विपरीत है अर्थात् उपर्युक्त डाकारसे कर्म करनेवाला नहीं है, कर्मोंका आरम्भ रम्भाद् ब्रह्मणि सर्वान्तरे प्रत्यगात्मनि करनेसे पहले (गृहस्थी न बनकर ब्रह्मचर्य-आश्रममें ) ही जिसका सबके अन्दर व्यापक अन्तरात्मारूप निष्क्रिये संजातात्मदर्शना निष्क्रिय ब्रह्ममें आत्मभाव प्रत्यक्ष हो गया है, स दृष्टादृष्टेष्टविषयाशीविवर्जिततया दृष्टा- वह केवल शरीरयात्राके लिये चेष्टा करनेवाला ज्ञान- दृष्टार्थे कर्मणि प्रयोजनम् अपश्यन् ससाधनं निष्ट यति, इस लोक और परलोकके समस्त इच्छित भोगोंकी आशासे रहित होनेके कारण, इस लोक और कर्म संन्यस्य शरीरयात्रामात्रचेष्टो यतिः | परलोकके भोगरूप फल देनेवाले कर्मों में अपना कोई ज्ञाननिष्ठो मुच्यते इति एतम् अर्थ दर्शयितुम् को त्यागकर मुक्त हो जाता है। इसी भावको भी प्रयोजन न देखकर कमोंको और कमोंके साधनों- आहे- दिखलानेके लिये ( अगला श्लोक) कहते हैं- निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ २१ ॥ निराशीः निर्गता आशिषो यस्मात् स निरा-। जिसकी सम्पूर्ण आशाएँ दूर हो गयी हैं, वह शीः यतचित्तात्मा चित्तम् अन्तस्करणम् आत्मा 'निराशीः' है, जिसने चित्त यानी अन्तःकरणको और आत्मा यानी बाह्य कार्य-करणके संघातरूप शरीरको- बाह्यः कार्यकरणसंघात तो उभौ अपि यतो इन दोनोंको भलीप्रकार अपने वशमें कर लिया है वह 'यतचित्तात्मा' कहलाता है, जिसने समस्त परिग्रहका संयतो थेन स यतचित्तात्मा, त्यक्तसर्वपरिग्रहः अर्थात् भोगोंकी सामग्रीका सर्वथा त्याग कर दिया त्यक्तः सर्वः परिग्रहो येन स त्यक्तसर्वपरिग्रहः।। है, वह 'त्यक्तसर्वपरिग्रह' है। शारीरं शरीरस्थितिमात्रप्रयोजन केवलं तत्र ऐसा पुरुष केवल शरीरस्थितिमात्रके लिये किये अपि अभिमानवर्जितं कर्म कुर्वन् न आप्नौति न जानेवाले और अभिमानरहित कर्मोको करता हुआ पापको अर्थात् अनिष्टरूप पुण्य-पाप दोनोंको नहीं प्रामोति किल्बिषम् अनिष्टरूपं पापं धर्मच । धर्मः प्राप्त होता । बन्धनकारक होनेसे धर्म भी मुमुक्षुके अपि मुमुक्षोः किल्विषम् एव बन्धापादकत्वात् । लिये तो पाप ही है । किं च शारीरं केवलं कर्म इत्यत्र कि यहाँ 'शारीरं केवलं कर्म इस पदमें शरीरद्वारा शरीरनिर्वयं शारीरं कर्म अभिप्रेतम् आहोस्थित् निर्वाहमात्र के लिये किये जानेवाले कर्म शारीरिक कर्म | होनेवाले कर्म शारीरिक कर्म माने गये हैं, या शरीर- शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं शारीरं कर्म इति । माने गये हैं ?