पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१२८

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श्रीमद्भगवद्गीता किं च अतो यदि शरीरनिर्वत्यं शारीरं कर्म | चाहे शरीरद्वारा होनेवाले कर्म शारीरिक कर्म यदि वा शरीरस्थितिमात्र प्रयोजनं शारीरम् जानेवाले कर्म 'शारीरिक कर्म' माने जायें, इस माने जायँ या शरीरनिर्वाहमात्रके लिये किये इति, उच्यते-- विवेचनसे क्या प्रयोजन है ! इसपर कहते हैं--- यदा शरीरनिर्वयं कर्म शारीरम् अभिप्रेतं जो शरीरद्वारा होनेवाले कर्मोका नाम शारीरिक स्यात् तदा दृष्टादृष्टप्रयोजनं कर्म प्रतिषिद्धम् | कर्म मान लिया जाय तो इस लोकमें या परलोकमें फल देनेवाले निषिद्ध कर्मीको भी शरीरद्वारा करता हुआ अपि शरीरेण कुर्वन् न आमोति किल्मिषम् इति । मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता, ऐसा कहनेसे भगवान्- अवतो विरुद्धाभिधानं प्रसज्येत । शास्त्रीयं च के कथनमें विरुद्ध विधानका दोष आता है । और इस कर्म दृष्टादृष्टप्रयोजनं शरीरेण कुर्वन् न आप्नोति | लोक या परलोकमें फल देनेवाले, शास्त्रविहित कोको शरीरद्वारा करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं किल्विषम् इति अपि ब्रुवतः अप्राप्तप्रतिषेध-! होता, ऐसा कहनेसे भी बिना प्राप्त हुए दोपके | प्रतिषेध करनेका प्रसंग आ जाता है । शारीरं कर्म कुर्वन् इति विशेषणात् केवल- तथा शारीरिक कर्म करता हुआ' इस विशेषणसे और 'केवल' शब्दके प्रयोगसे (उपर्युक्त मान्यताके शब्दप्रयोगात् च वाङ्मनसनिर्वत्य कर्म विधि- अनुसार ) भगवान्का यह कहना हो जाता है कि प्रतिषेधविषयं धर्माधर्मशब्दवाच्यं कुर्वन् (शरीरके सिवा) मन-वाणीद्वारा किये जानेवाले विहित और प्रतिषिद्ध कर्मोको, जो किधर्म और अधर्म नामसे प्रामोति किल्वियम् इति उक्तं स्यात् । कहे जाते हैं, करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त होता है। तत्र अपि वाङ्मनसाभ्यां विहितानुष्ठानपक्षे उसमें भी मन-वाणीद्वारा विहित कर्मोको करता किल्विषप्राप्तिवचनं विरुद्धम् आपोत । प्रतिषिद्ध- हुआ पापको प्राप्त होता है, यह कहना तो विरुद्ध विधान होगा, और 'निषिद्ध कर्मोको करता हुआ सेवापक्षे अपि भूतार्थानुवादमात्रम् अनर्थक पापको होता है, यह कहना अनुवादमात्र होनेसे व्यर्थ होगा। यदा तु शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं शारीरं परन्तु जब शरीरनिर्वाहमात्रके लिये किये जाने- वाले कर्म शारीरिक कर्म मान लिये जायेंगे, तत्र कर्म अभिप्रेतं भवेत् तदा दृष्टादृष्टप्रयोजनं इसका यह अर्थ हो जायगा कि इस लोक या परलोक- के भोग ही जिनका प्रयोजन है, जो विधि-निषेधात्मक कर्म विधिप्रतिषेधगम्यं शरीरवाङ्मनसनिर्वय॑म् शास्त्रों द्वारा जाने जाते हैं, जो शरीर, मन या वाणीद्वारा किये जाते हैं, ऐसे अन्य कर्मोको न करता हुआ अन्यद् अकुर्वन् तैः एव शरीरादिभिः शरीर- उन शरीर, मन या वाणीसे, केवल शरीरनिर्वाहके स्थितिमात्र प्रयोजनं केवलशब्दप्रयोगाद् अहं किल्बिषको प्राप्त नहीं होता। यहाँ केवल' शब्दके लिये आवश्यक कर्म लोकदृष्टिसे करता हुआ पुरुष करोमि इति अभिमानवर्जितः शरीरादिचेष्टा- प्रयोगसे यह अभिप्राय है कि वह 'मैं करता हूँ' इस अभिमानसे रहित होकर केवल लोकदृष्टि से ही शरीर, मात्रं लोकदृष्टया कुर्वन् न आमोति किल्बिषम् । । वाणी आदिकी चेष्टामात्र करता है । स्यात् ।