पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१२९

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शांकरभाष्य अध्याय ४ एवंभूतस्य पापशब्दवाच्यकिल्विषप्राप्त्य- ऐसे पुरुषको पापरूप किल्विष प्राप्त होना तो असम्भव है, इसलिये यहाँ यह समझना चाहिये कि संभवात् किल्विषं संसारं न आमोति । वह किल्बिषको यानी संसारको प्राप्त नहीं होता। ज्ञानाग्निदग्धसर्वकर्मत्वाद् अप्रतिबन्धेन ज्ञानरूप अग्निद्वारा उसके समस्त कर्मोंका नाश हो जानेके कारण वह बिना किसी प्रतिबन्धक मुक्त मुच्यते एव इति । ही हो जाता है। पूर्वोक्तसम्यग्दर्शनफलानुवाद एव एषः। यह पहले कहे हुए यथार्थ आत्मज्ञानके फलंका एवम् 'शारीरं केवलं कर्म' इति अस्य अर्थपरिग्रहे अनुवादमात्र है । 'शारीरं केवलं कर्म इस वाक्यका इस प्रकार अर्थ मान लेनेसे वह अर्थ निर्दोष सिद्ध निरवयं भवति ॥२१॥ होता है ॥२१॥ हुए कहते हैं- त्यक्तसर्वपरिग्रहस्य यतेः अन्नादेः शरीर- जिसने समस्त संग्रहका त्याग कर दिया है ऐसे स्थितिहेतोः परिग्रहस्य अभावाद् याचनादिना सन्यासीके पास शरीरनिर्वाहके कारणरूप अन्नादि- का संग्रह नहीं होता, इसलिये उसको याचनादिद्वारा शरीरस्थितौ कर्तव्यतायां प्राप्तायाम् 'अयाचितम- शरीरनिर्वाह करनेकी योग्यता प्राप्त हुई । इसपर, संक्लूप्तमुपपन्नं यदृच्छया' (बोधा० ध० २११८११२)! 'विना याचना किये, बिना संकल्पके अथवा बिना इच्छा किये प्राप्त हुए' इत्यादि वचनोंसे जो इत्यादिना वचनेन अनुज्ञातं यतेः शरीरस्थिति- शास्त्रमें संन्यासीके शरीरनिर्वाहके लिये अन्नादिकी हेतोः अन्नादेः प्राप्तिद्वारम् आविष्कुर्वन् आह- प्राप्तिके द्वार बतलाये गये हैं, उनको प्रकट करते यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो बिमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ २२॥ यदृच्छालाभसंतुष्टः अप्रार्थितोपनतो लामो जो बिना माँगे अपने आप मिले हुए पदार्थसे सन्तुष्ट है अर्थात् उसीमें जिसके मनका यह भाव हो यदृच्छालामः तेन संतुष्टः संजातालंप्रत्ययः । जाता है कि यही पर्याप्त है, द्वन्द्वातीतो द्वन्द्वैः शीतोष्णादिभिः हन्यमानः जो द्वन्द्वोंसे अतीत है अर्थात् शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे सताये जानेपर भी जिसके चित्तमें विषाद अपि अविषण्णचित्तो द्वन्द्वातीत उच्यते । विमत्सरो विगतमत्सरो निर्वैरबुद्धिः समः जो ईर्ष्यासे रहित अर्थात् निर्वैर-बुद्धिवाला है. और जो अपने-आप प्राप्त हुए लाभकी सिद्धि-असिद्धिमें तुल्यो यदृच्छालाभस्य सिद्धौ असिद्धौ च । | भी सम रहता है। य एवंभूतो यतिः अन्नादेः शरीरस्थितिहेतोः जो ऐसा शरीरस्थितिके हेतुरूप अन्नादिके प्राप्त लाभालाभयोः समो हर्षविषादवर्जितः कर्मादौ होने या न होने में भी हर्ष-शोकसे रहित, समदर्शी है और कर्मादिमें अकर्मादि देखनेवाला, यथार्थ आत्म- अकर्मादिदर्शी यथाभूतात्मदर्शननिष्ठः शरीर- | दर्शननिष्ठ, एवं शरीरस्थितिमात्रकेलिये किये जानेवाले नहीं होता,