पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१३०

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श्रीमद्भगवद्गीता अकर्ता एच । स्थितिमानप्रयोजने भिक्षाटनादिकर्मणि शरीरा- और शरीरादिद्वारा होनेवाले भिक्षाटनादि कोंमें भी दिनिर्वत्यै न एव किंचित् करोमि अहम् ‘गुणा कुछ नहीं करता 'गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं। इस गुणेषु वर्तन्ते' इति एवं सदा संपरिचक्षाण | प्रकार सदा देखनेवाला है, वह यति अपने में कर्तापन- आत्मनः कर्तृत्वाभावं पश्यन् न एव किंचिद् नसे वास्तवमें भिक्षाटनादि कुछ भी कर्म नहीं का अभाव देखनेसे अर्थात् आत्माको अकर्ता समझ भिक्षाटनादिकं कर्म करोति । करता है। लोकव्यवहारसामान्यदर्शनेन तु लौकिकैः ऐसा पुरुष लोकव्यवहारकी साधारण दृष्टिसे तो आरोपितकरीत्वे भिक्षाटनादौ कर्मणि कर्ता सांसारिक पुरुषोंद्वारा आरोपित किये हुए कर्तापनके भवति । स्वानुभवेन तु शास्त्रप्रमाणादिजनितेन कारण भिक्षाटनादि कोका कर्ता होता है । परन्तु शास्त्रप्रमाण आदिसे उत्पन्न अपने अनुभवसे (वस्तुतः) वह अकर्ता ही रहता है। स एवं पराध्यारोपितकर्तृत्व शरीरस्थिति- इस प्रकार दूसरोंद्वारा जिसपर कर्तापनका मात्रप्रयोजनं भिक्षाटनादिकं कर्म कृत्वा अपि अध्यारोप किया गया है, ऐसा वह पुरुष शरीर- निर्वाहमात्रके लिये किये जानेवाले भिक्षाटनादि न निबध्यते, बन्धहेतोः कर्मणः सहेतुकस्य कर्मोको करता हुआ भी नहीं बँधता । क्योंकि ज्ञानाग्निना दग्धत्वाद् इति उक्तानुवाद एव ज्ञानरूप अग्निद्वारा उसके ( समस्त ) बन्धनकारक कर्म हेतुसहित भस्म हो चुके हैं । यह पहले कहे एषः॥२२॥ हुएका ही अनुवादमात्र है ॥२२॥ 'त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गम् इति अनेन श्लोकेन यः जो कर्म करना प्रारम्भ कर चुका है, ऐसा पुरुप जब कर्म करते-करते इस ज्ञानसे सम्पन्न हो जाता है प्रारब्धकर्मा सन् यदा निष्क्रियब्रह्मात्मदर्शन- कि 'निष्क्रिय ब्रह्म ही आत्मा है' तब अपने कर्ता, कर्म संपन्नः स्यात् तदा तस्य आत्मनः कर्तृकर्म- । और प्रयोजनादिका अभाव देखनेवाले उस पुरुषके लिये कर्मों का त्याग कर देना ही उचित होता है। किन्तु प्रयोजनाभावदर्शिनः कर्मपरित्यागे . प्राप्त किसी कारणवश कर्मोंका त्याग करना असम्भव होने- कुतश्चित् निमित्तात् तदसंभवे सति पूर्ववत् | पर यदि वह पहलेकी तरह उन कर्मोमें लगा रहे तसिन् कर्मणि अभिप्रवृत्तः अपि न एव तो भी, वास्तबमें कुछ भी नहीं करता । इस प्रकार किंचित् करोति स इति कर्माभावः प्रदर्शितः। कर्मोका अभाव (अकर्मत्व) दिखलाया जा चुका है। 'त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गम्' इस श्लोकसे (ज्ञानीके) यस्य एवं कर्माभावो दर्शितः तस्य एव--- जिस पुरुषके कर्मोंकाइस प्रकार अभाव दिखाया गया है उसीके (विषयमें अगला श्लोक कहते हैं )- गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः। यज्ञायाचरतः कर्म समग्र प्रविलीयते ॥ २३ ॥ गतसङ्गस्य सर्वतो निवृत्तासक्तेः मुक्तस्य जिस पुरुषकी सब ओरसे आसक्ति निवृत्त हो निवृत्तधर्माधर्मादिबन्धनस्य ज्ञानावस्थितचेतसो चुकी है, जिसके पुण्य-पापरूप बन्धन छूट गये हैं, जिसका चित्त निरन्तर ज्ञानमें ही स्थित है, ऐसे ज्ञाने एव अवस्थितं चेतो यस्य सः अयं केवल यज्ञसम्पादनके लिये ही कर्मोंका आचरण