पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

HTHARASHTRA TRAS शांकरभाष्य अध्याय ४ ज्ञानावस्थितचेताः तस्य यज्ञाय यज्ञनिर्वृत्यर्थम् करनेवाले उस संगहीन मुक्त और ज्ञानावस्थित-चित्त आचरतो निवर्तयतः कर्म समग्रं सहाग्रेण फलेन । पुरुषके समग्र कर्म विलीन हो जाते हैं । 'अन्न' शब्द फलका वाचक है उसके सहित कर्मोको समग्न कर्म वर्तते इति समग्रं कर्म तत् समग्रं प्रविलीयते कहते हैं, अतः यह अभिप्राय हुआ कि उसके ! विनश्यति इत्यर्थः ॥२३॥ फलसहित समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं ॥२३॥

कस्मात् पुनः कारणात् क्रियमाणं कर्म किये जानेवाले कर्म अपना कार्य आरम्भ किये खकार्यारम्भम् अकुर्वत् समग्रं प्रविलीयते इति बिना ही (कुछ फल दिये बिना ही ) किस कारणसे उच्यते यत:- फलसहित विलीन हो जाते हैं ? इसपर कहते हैं--- ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ २४ ॥ ब्रह्म अर्पणं येन करणेन ब्रह्मविद् हविः अग्नौ ब्रह्मवेत्ता पुरुष जिस साधनद्वारा अग्निमें हवि अर्पण अर्पयति तद् ब्रह्म एव इति पश्यति तस्य करता है, उस साधनको ब्रह्मरूप ही देखा करता है, आत्मध्यतिरेकेण अभावं पश्यति । अर्थात् आत्माके सिवा उसका अभाव देखता है। यथा शुक्तिकायां रजताभावं पश्यति तद् जैसे (सीपको जाननेवाला) सीपमें चाँदीका अभाव देखता है 'ब्रह्म ही अर्पण हैं' इस पदसे भी वही उच्यते ब्रह्म एव अर्पणम् इति, यथा यद् रजतं बात कही जाती है। अर्थात् जैसे यह समझता है कि जो चाँदीके रूपमें दीख रही है वह सीप ही है। तत् शुक्तिका एव इति । ब्रह्म, अर्पणम् इति । (जैसे ही ब्रह्मवेत्ताभीसमझता है कि जो अर्पण दीखता है वह ब्रह्म ही है ) ब्रह्म और अर्पण-यह दोनों पद असमस्त पदे । अलग-अलग हैं। यद् अर्पणबुद्धधा गृह्यते लोके तद् अस्य अभिप्राय यह कि, संसारमें जो अर्पण माने जाते हैं वे झुक झुब आदि सब पदार्थ उस ब्रह्मवेत्ताकी ब्रह्मविदो ब्रह्म एव इत्यर्थः । दृष्टिमें ब्रह्म ही हैं। ब्रह्म हविः तथा यद् हविर्बुद्धया गृह्यमाणं वैसे ही जो वस्तु हविरूपसे मानी जाती है वह तद्ब्रम एव अस्य। भी उसकी दृष्टिमें ब्रह्म ही होती है। तथा ब्रह्माग्नौ इति समस्तं पदम् । 'ब्रह्माग्नौ' यह पद समासयुक्त है। अग्निः अपि ब्रह्म एव यत्र हूयते ब्रह्मणा इसलिये यह अर्थ हुआ कि ब्रह्मरूप कर्ताद्वारा जिसमें हवन किया जाता है वह अग्नि भी ब्रह्म ही है का ब्रह्म एवं कर्ता इत्यर्थः । यत् तेन हुतं और वह कर्ता भी ब्रह्म ही है और जो उसके द्वारा हवनक्रिया तद् ब्रह्म एव । हवनरूप क्रिया की जाती है वह भी ब्रह्म ही है। यत् तेन गन्तव्यं फलं तद् अपि ब्रह्म एव । उस ब्रह्मकर्ममें स्थित हुए पुरुषद्वारा प्राप्त करनेयोग्य ब्रह्मकर्मसमाधिना, ब्रह्म एव कर्म ब्रह्मकर्म तस्मिन् । जो फल है वह भी ब्रह्म ही है। अर्थात् ब्रह्मरूप कर्ममें