पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१३२

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श्रीमद्भगवद्गीता समाधिः यस्य स ब्रह्मकर्मसमाधिः तेन ब्रह्म- जिसके चित्तका समाधान हो चुका है उस पुरुपद्वारा कर्मसमाधिना ब्रह्म एव गन्तव्यम् । प्राप्त किये जानेयोग्य जो फल है वह भी ब्रह्म ही है। एवं लोकसंग्रहं चिकीर्षुणा अपि क्रियमाणं इस प्रकार लोकसंग्रह करना चाहनेवाले पुरुषद्वारा किये हुए कर्म भी ब्रह्मबुद्धिसे बाधित होनेके कारण कर्म परमार्थतः अकर्म ब्रह्मबुद्धयुपमृदितत्वात् । अर्थात् फल उत्पन्न करनेकी शक्तिसे रहित कर दिये जानेके कारण वास्तवमें अकर्म ही हैं। एवं सति निवृत्तकर्मणः अपि सर्वकर्म- ऐसा अर्थ मान लेनेपर कर्मोंको छोड़ देनेवाले संन्यासिनः सम्यग्दर्शनस्तुत्यर्थ यज्ञत्वसंपादनं कर्म-संन्यासीके ज्ञानको भी यथार्थ ज्ञानकी स्तुतिके लिये यज्ञरूप समझना भली प्रकार बन सकता है, ज्ञानस्य सुतराम् उपपद्यते यद् अर्पणादि अधि- अधियज्ञमें जो सुवादि वस्तुएँ प्रसिद्ध हैं वे सब इस यज्ञे प्रसिद्धं तद् अस्य अध्यात्मं ब्रह्म एव | यथार्थ ज्ञानी संन्यासीके (सम्यक् ज्ञानरूप) परमार्थदर्शिन इति । अध्यात्मयज्ञमें ब्रह्म ही हैं। अन्यथा सर्वस्य ब्रह्मत्वे अर्पणादीनाम् एव उपर्युक्त अर्थ नहीं माननेसे वास्तवमें सब ही ब्रह्मरूप होनेके कारण केवल स्रुव आदिको ही विशेषतो ब्रह्मत्वाभिधानम् अनर्थकं स्यात् । विशेषतासे ब्रह्मरूप बतलाना व्यर्थ होगा। तस्माद्ब्रह्म एव इदं सर्वम् इति अभिजानतो सुतरां 'यह सब कुछ ब्रह्म ही है' इस प्रकार समझनेवाले ज्ञानीके लिये वास्तवमें सब काँका विदुषः सर्वकर्माभावः। अभाव ही हो जाता है। कारकबुद्धयभावात् च । न हि कारकबुद्धि- तथा उसके अन्तःकरणमें ( क्रिया, फल आदि) कारकसम्बन्धी भेदबुद्धिका अभाव होने के कारण भी रहितं यज्ञाख्यं कर्म दृष्टम् । यही सिद्ध होता है। क्योंकि कोई भी यज्ञ नामक कर्म कारकसम्बन्धी भेदबुद्धिसे रहित नहीं देखा गया । सर्वम् एव अग्निहोत्रादिकं कर्म शब्दसमर्पित- अभिप्राय यह है कि अग्निहोत्रादि सभी कर्म, (इन्द्राय वरुणाय आदि) शब्दोंद्वारा हवि आदि द्रव्य देवताविशेषसंप्रदानादिकारकवुद्धिमत् कत्र- 'जिनके अर्पण किये जाते हैं, उन देवताविशेषरूप भिमानफलाभिसंधिमत् च दृष्टम् । सम्प्रदान आदि कारकबुद्धिवाले तथा कर्तापनके अभिमानसे और फलकी इच्छासे युक्त देखे गये हैं। न उपमृदितक्रियाकारकफलभेदबुद्धिमत् जिसमेंसे क्रिया,कारक और फलसम्बन्धी भेदबुद्धि नष्ट हो गयी हो तथा जो कर्तापनके अभिमानसे और कर्तृत्वाभिमानफलाभिसंधिरहितं वा । फलकी इच्छासे रहित हो ऐसा यज्ञ नहीं देखा गया । इदं तु ब्रह्मबुद्ध्युपमृदितार्पणादिकारक- परन्तु यह उपर्युक्त कर्म तो ऐसा है कि जिसमें सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि हो जानेके कारण, अर्पणादि कारक, क्रियाफलभेदबुद्धि कर्म अतः अकर्म एव तत् । क्रिया और फलसम्बन्धी भेदबुद्धि नष्ट हो गयी है । इसलिये यह अकर्म ही है।