पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१३३

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wwavimarathi शांकरभाष्य अध्याय किये कारक तथा च दर्शितम् 'कर्मण्यकर्म यः पश्येत्' यही बात, 'कर्मण्यकर्म यः पश्येत्' 'कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्कराति सः' 'गुणा 'कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित् करोति स' 'गुणा गुणेषु वर्तन्ते' 'नैव किंचित् करोमीति गुणेषु वर्तन्ते 'नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत युक्तो मन्येत तत्त्ववित्' इत्यादि श्लोकोंद्वारा भी तत्ववित्' इत्यादिभिः। दिखलायी गयी है। तथा च दर्शयन् तत्र तत्र क्रियाकारकफल- और इसी प्रकार दिखलाते हुए भगवान जगह- भेदबुद्ध्युपमदं करोति । जगह क्रिया, कारक और फलसम्बन्धी भेदबुद्धिका निषेध कर रहे हैं। दृष्टा च काम्याग्रिहोत्रादौ कामोपमर्दैन देखा भी गया है कि सकाम अग्निहोत्रादिमें काम्याग्निहोत्रादिहानिः। कामना न रहनेपर वे सकाम अग्निहोत्रादि नहीं रहते । (उनकी सकामता नष्ट हो जाती है) तथा मतिपूर्वकामतिपूर्वकादीनां कर्मणां तथा यह भी देखा गया है कि जान-बूझकर हुए और अनजानमें किये हुए कर्म भिन्न-भिन्न कार्यविशेषस्य आरम्भकत्वं दृष्टम् । कार्योंके आरम्भक होते हैं अर्थात् उनका फल अलग-अलग होता है। तथा इह अपि ब्रह्मवुद्ध्युपमृदितार्पणादि- वैसे ही यहाँ भी जिस पुरुषकी सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि कारकक्रियाफलभेदबुद्धेः बाह्यचेष्टामात्रेण कर्म हो जानेसे (नुव, हवि आदिमें ) क्रिया, और फलसम्बन्धी भेदबुद्धि नष्ट हो गयी है, उस अपि विदुषः अकर्म संपद्यते । अत उक्तं समग्रं ज्ञानी पुरुषके बाह्य चेष्टामात्रसे होनेवाले कर्म भी प्रविलीयते इति । अकर्म हो जाते हैं। इसीलिये कहा है कि उसके फलसहित कर्म विलीन हो जाते हैं।' अत्र केचिद् आहुः यद् ब्रह्म तदर्यणादीनि । इस विषयमें कोई-कोई टीकाकार कहते हैं कि ब्रह्म एक किल अर्पणादिना पञ्चविधेन | जो ब्रह्म है वही खुव आदि है अर्थात् ब्रह्म ही स्रुव कारकात्मना व्यवस्थितं सत् तद् एव कर्म आदि पाँच प्रकारके कारकोंके रूपमें स्थित है और करोति । तत्र न अर्पणादिबुद्धिः निवय॑ते वही कर्म किया करता है, ( उनके सिद्धान्ता- किं तु अर्पणादिषु ब्रह्मबुद्धिः आधीयते । यथा नुसार ) उपर्युक्त यज्ञमें स्रुव आदि बुद्धि निवृत्त प्रतिमादौ विष्ण्वादिबुद्धिः यथा वा नामादौ की जाती है, जैसे कि मूर्ति आदिमें विष्णु आदि नहीं की जाती किन्तु स्रुव आदिमें ब्रह्मबुद्धि स्थापित ब्रह्मबुद्धिः इति । देव-बुद्धि या नाम आदिमें ब्रह्मबुद्धि की जाती है । सत्यम् एवम् अपि स्याद् यदि ज्ञानयज्ञ- ठीक है, यदि यह प्रकरण ज्ञानयज्ञकी स्तुतिके स्तुत्यर्थं प्रकरणं न स्यात् । लिये न होता तो यह अर्थ भी हो सकता था ! अत्र तु सम्बग्दर्शनं ज्ञानयज्ञशब्दितं परन्तु इस प्रकरणमें तो यज्ञ नामसे कहे जानेवाले अलग-अलग बहुत-से क्रिया-भेदोंको कहकर फिर अनेकान् यज्ञशब्दितान् क्रियाविशेषान् 'द्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ कल्याणकर है। उपन्यस्य 'श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः' इति इस कथनद्वारा ज्ञानयज्ञ शब्दसे कथित सम्यक् ज्ञानं स्तौति । दर्शनकी स्तुति करते हैं।