पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१३९

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शांकरभाष्य अध्याय ४ १२३ एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥ ३२ ॥ एवं यथोक्ता बहुविधा बहुप्रकाश यज्ञा वितता इसी प्रकार उपर्युक्त बहुत प्रकारके यज्ञ ब्रह्मके विस्तीर्णा ब्रह्मणो वेदस्य मुखे द्वारे । यानी वेदके मुखमें विस्तृत हैं । वेदद्वारेण अवगम्यमाना अक्षणो मुखे वेदद्वारा ही सब यज्ञ जाननेमें आते हैं इसी वितता उच्यन्ते, तद् यथा 'वाचि हि प्राणं अभिप्रायसे 'ब्रह्मके मुखमें विस्तारित हैं ऐसा कहा है। जुहुम' इत्यादयः। जैसे 'हम वाणीमें ही प्राणोंको हवन करते हैं। इत्यादि (इसी तरह अन्य सब यज्ञोंका भी वेदमें विधान है)। कर्मजान् कायिकवाचिकमानसकर्मोद्भवान् उन सब यज्ञोंको तू कर्मज-कायिक, वाचिक और विद्धि तान् सर्वान् अनात्मजान् । निर्व्यापारो मानसिक क्रियाद्वारा ही होनेवाले जान, वे हि आत्मा। आत्मासे होनेवाले नहीं हैं, क्योंकि आत्मा हलन- चलन आदि क्रियाओंसे. रहित है। अत एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे अशुभात् । न सुतरां इस प्रकार जानकर तू अशुभसे मुक्त हो मद्व्यापारा इमे निर्व्यापारः अहम् उदासीन जायगा अर्थात् यह सब कर्म मेरेद्वारा सम्पादित इति एवं ज्ञात्वा असात् सम्यग्दर्शनात् नहीं हैं, मैं तो निष्क्रिय और उदासीन हूँ, इस प्रकार मोक्ष्यसे संसारबन्धनाद् इत्यर्थः ॥३२॥ जानकर इस सम्यक् ज्ञानके प्रभावसे तू संसार- बन्धनसे मुक्त हो जायगा ॥३२॥ यज्ञ 'ब्रह्मार्पणम्' इत्यादिश्लोकेन सम्यग्दर्शनस्य 'ब्रह्मार्पणम्' इत्यादि श्लोकद्वारा यथार्थ ज्ञानको यज्ञत्वं संपादितं यज्ञाः च अनेके उपदिष्टाः तः यज्ञरूपसे सम्पादन किया, फिर बहुत-से यज्ञोंका वर्णन किया । अब पुरुषका इच्छित प्रयोजन जिन सिद्धपुरुषार्थप्रयोजनैः ज्ञानं स्तूयते । कथम् --- यज्ञोंसे सिद्ध होता है,उन उपर्युक्त अन्य यज्ञोंकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञकी स्तुति करते हैं। कैसे सो कहते हैं--- श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ञानयज्ञः परंतप सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ३३ ॥ श्रेयान् द्रव्यमयाद् द्रव्यसाधनसाध्याद् यज्ञात हे परन्तप ! द्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा अर्थात् ज्ञानयज्ञो हे परंतप । द्रव्यरूप साधनद्वारा सिद्ध होनेवाले यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठतर है। द्रव्यमयो हि यज्ञः फलस्य आरम्भको क्योंकि द्रव्यमय यज्ञ फलका आरम्भ करनेवाला ज्ञानयज्ञो न फलारम्भकः अतः श्रेयान् है और ज्ञानयज्ञ (जन्मादि) फल देनेवाला नहीं है। प्रशस्यतरः। इसलिये वह श्रेष्ठतर अर्थात् अधिक प्रशंसनीय है । कथम्, यतः सर्व कर्म समस्तम् अखिलम् अप्रति- क्योंकि हे पार्थ ! सबके सब कर्म मोक्षसाधन- बद्धं पार्थ ज्ञाने मोक्षसाधने सर्वतःसंप्लुतोदक- रूप ज्ञानमें, जो कि सब ओरसे परिपूर्ण जलाशयके समान है, समाप्त हो जाते हैं अर्थात् उन सबका स्थानीये परिसमाप्यते अन्तर्भवति इत्यर्थः । ज्ञानमें अन्तर्भाव हो जाता है ।