पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१४०

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१२४ श्रीमद्भगवद्गीता 'यथा कृताय विजितायाधरेयाः संयन्त्येवमेनं जैसे(चौपड़के खेलमें कृतयुग त्रेता द्वापर और सर्व तदभिलमोति यत्किंच प्रजाः साधु कुर्वन्ति कलियुग ऐसे नामवाले जो चार पासे होते है उन- मेसे)कृतयुगनामक पालेको जीत लेनेपर नीचेवाले यस्तद्वेद यत्स वेद' (छा०४।१।४) इति सब पासे अपने आप ही जीत लिये जाते हैं, ऐसे ही जिसको वह रैछ जानता है उस ब्रह्मको जो कोई भी श्रुते ॥३३॥ जान लेता है, प्रजा जो कुछ भी अच्छे कर्म करती है उन सबका फल उसे अपने आप ही मिल जाता है।' इस श्रुतिसे भी यही सिद्ध होता है ॥३३॥ तद् एतद् विशिष्टं ज्ञानं तर्हि केन प्राप्यते ! इस प्रकारसे श्रेष्ठ बतलाया हुआ वह ज्ञान किस इति उच्यते- उपायसे मिलता है ? सो कहते हैं---- तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ३४ ॥ तद् विद्धि विजानीहि येन विधिना प्राप्यते। वह ज्ञान जिस विधिसे प्राप्त होता है वह तू इति आचार्यान् अभिगम्य प्रणिपातेन प्रकर्षण | जान यानी सुन !आचार्यके समीप जाकर भलीभाँति नीचैः पतनं प्रणिपातो दीर्घनमस्कारः तेन दण्डवत् प्रणाम करनेसे एवं 'किस तरह बन्धन कथं बन्धः कथं मोक्षः का विद्या काच अविद्या हुआ ?? 'कैसे मुक्ति होगी ?' 'विद्या क्या है ?" 'अविद्या क्या है ?' इस प्रकार (निष्कपट भावसे) इति परिप्रश्नेन सेवया गुरुशुश्रूषया । प्रश्न करनेसे और गुरुकी यथायोग्य सेवा करने- से (वह ज्ञान प्राप्त होता है)। एवम् आदिना प्रश्रयेण आवर्जिता आचार्या अभिप्राय यह कि इस प्रकार सेवा और विनय उपदेक्ष्यन्ति कथयिष्यन्ति ते ज्ञानं यथोक्त- आदिसे प्रसन्न हुए तत्त्वदर्शी ज्ञानो आचार्य तुझे विशेषणम्, ज्ञानिनः । उपर्युक्त विशेषणोंवाले ज्ञानका उपदेश करेंगे । ज्ञानवन्तः अपि केचिद् यथावत् तत्त्व- ज्ञानवान् भी कोई-कोई ही यथार्थ तत्त्वको दर्शनशीला अपरे न अतो विशिनष्टि जाननेवाले होते हैं, सब नहीं होते । इसलिये तत्त्वदर्शिन इति । ज्ञानीके साथ 'तत्त्वदर्शी' यह विशेषण लगाया है। ये सम्यग्दर्शिनः तैः उपदिष्टं ज्ञानं कार्यक्षम इससे भगवान्का यह अभिप्राय है कि जो यथार्थ भवति न इतरद् इति भगवतो मतम् ॥३४॥ तत्त्वको जाननेवाले होते हैं, उनके द्वारा उपदेश किया हुआ ही ज्ञान अपने कार्यको सिद्ध करने में समर्थ होता है दूसरा नहीं ॥३४॥ तथा च सति इदम् अपि समर्थ वचनम् - ऐसा होनेपर यह कहना भी ठीक है--- यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव । येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ ३५॥