पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१४२

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श्रीमद्भगवद्गीता सामर्थ्याद् येन कर्मणा शरीरंम् आरब्धं जिस कर्मसे शरीर उत्पन्न हुआ है, वह फल तत् प्रवृत्तफलत्वाद् उपभोगेन एव. क्षीयते । देनेके लिये प्रवृत्त हो चुका इसलिये उसका नाश तो उपभोगद्वारा ही होगा । यह युक्तिसिद्ध बात है। अतो यानि अप्रवृत्तफलानि ज्ञानोत्पत्तेः अतः इस जन्ममें ज्ञानकी उत्पत्तिसे पहले और प्राक् कृतानि ज्ञानसहभाधीनि च अतीतानेक- ज्ञानके साथ-साथ किये हुए एवं पुराने अनेक जन्मों में जन्मकृतानि च तानि एव सर्वाणि भस्मसात् किये हुए, जो कम अभीतक फल देने के लिये कुरुते ॥३७॥ नहीं हुए हैं, उन सत्र कोंको ही ज्ञानाग्नि भस्म करता है ( प्रारब्ध-कर्मोको नहीं)॥३७॥ प्रवृत्त यत एवम् अत:- | क्योंकि ज्ञानका इतना प्रभाव है इसलिये- न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥३८॥ न. हि ज्ञानेन सदृशं तुल्यं पवित्रं पावनं ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला-शुद्ध करने- शुद्धिकरम् इह विद्यते। | बाला इस लोकमें (दुसरा कोई ) नहीं है। तद् ज्ञानं खयम् एव योगसंसिद्धो योगेन कर्म- कर्मयोग या समाधियोगद्वारा बहुत कालमें योगेन समाधियोगेन च संसिद्धः संस्कृतो भली प्रकार शुद्धान्तःकरण हुआ अर्थात् वैसी योग्यता- योग्यताम् आपनो मुमुक्षुः कालेन महता आत्मनि को प्राप्त हुआ मुमुक्षु स्वयं अपने आत्मामें ही उस विन्दति लभते इत्यर्थः ॥३८॥ ज्ञानको पाता है यानी साक्षात् किया करता है ।३८॥ येन एकान्तेन ज्ञानप्राप्तिः भवति स उपाय जिसके द्वारा निश्चय ही ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती उपदिश्यते-- है वह उपाय बतलाया जाता है- श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ ३९ ॥ श्रद्धावान् श्रद्धालु लभते ज्ञानम् । श्रद्धावान्-श्रद्धालु मनुष्य ज्ञान प्राप्त किया करता है। श्रद्धालुत्वे अपि भवति कश्चिद् मन्दप्रस्थान: श्रद्धालु होकर भी तो कोई मन्द प्रयत्नवाला हो अतः आह तत्परो गुरूपासनादौ अभियुक्तः, सकता है, इसलिये कहते हैं कि तत्पर अर्थात् ज्ञानलब्ध्युपाये। ज्ञानप्राप्तिके गुरुशुश्रूषादि उपायोंमें जो अच्छी प्रकार लगा हुआ हो। श्रद्धावान् तत्परः अपि अजितेन्द्रियः श्रद्धावान् और तत्पर होकर भी कोई अजितेन्द्रिय स्याद् इति अत आह संयतेन्द्रियः संयतानि हो सकता है, इसलिये कहते हैं कि संयतेन्द्रिय विषयेभ्यो निवर्तितानि - यस्य इन्द्रियाणि हों यानी विषयोंसे निवृत्त कर ली गयी हों, वह भी होना चाहिये । जिसकी इन्द्रियाँ वशमें की हुई स संयतेन्द्रियः। संयतेन्द्रिय कहलाता है।