पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१४३

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शांकरभाष्य अध्याय ४ य एवंभूतः श्रद्धावान् तत्परः संयतेन्द्रियः जो इस प्रकार श्रद्धावान् , तत्पर और संयतेन्द्रिय च सः अवश्यं ज्ञानं लभते । भी होता है वह अवश्य ही ज्ञानको प्राप्त कर लेता है। प्रणिपातादिः तु बाह्यः अनैकान्तिकः अपि जो दण्डवत् प्रणामादि उपाय हैं वे तो बाह्य हैं और कपटी मनुष्यद्वारा भी किये जा सकते हैं भवति मायावित्वादिसंभवात् न तु तत् श्रद्धा- | इसलिये वे (ज्ञानरूप फल उत्पन्न करनेमें ) अनिश्चित भी हो सकते हैं । परन्तु श्रद्धालुता आदि उपायोंमें बत्त्वादौ इति एकान्ततो ज्ञानलब्ध्युपायः । कपट नहीं चल सकता, इसलिये ये निश्चयरूपसे ज्ञानप्राप्तिके उपाय हैं। किं पुनः ज्ञानलाभात् स्याद् इति उच्यते- ज्ञानप्राप्तिसे क्या होगा? सो (उत्तरार्धमें ) कहते हैं- ज्ञानं लब्ध्वा परां मोक्षाख्यो शान्तिम् उपरतिम् | ज्ञानको प्राप्त होकर मनुष्य मोक्षरूप परम शान्तिको यानी उपरामताको बहुत शीघ्र-तत्काल अचिरेण क्षिप्रम् एव अधिगच्छति ।। ही प्राप्त हो जाता है। सम्यग्दर्शनात् क्षिप्रं मोक्षो भवति इति यथार्थ ज्ञानसे तुरन्त ही मोक्ष हो जाता है, यह सब सर्वशास्त्रन्यायप्रसिद्धः सुनिश्चितः अर्थः ॥३९॥ | शास्त्रों और युक्तियोंसे सिद्ध सुनिश्चित बात है ॥३९॥ WV - - कथम् उच्यते- अज्ञः .

अत्र संशयो न कर्तव्यः पापिष्ठो हि संशयः, इस विषयमें संशय नहीं करना चाहिये, क्योंकि संशय बड़ा पापी है। कैसे ? सो कहते हैं- अज्ञश्वाश्रधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ ४० ॥ च अनात्मज्ञा अश्रद्दधानः जो अज्ञ' यानी आत्मज्ञानसे रहित है, जो अश्रद्धालु है और जो संशयात्मा --ये तीनों नष्ट संशयात्मा च विनश्यति । हो जाते हैं। अज्ञाश्रद्दधानौ यद्यपि विनश्यतः तथापि यद्यपि अज्ञानी और अश्रद्धालु भी नष्ट होते हैं न तथा यथा संशयात्मा, संशयात्मा तु । परन्तु जैसा संशयात्मा नष्ट होता है, वैसे नहीं, पापिष्ठः सर्वेषाम् । क्योंकि इन सबमें संशयात्मा अधिक पापी है। कथम्, न अयं साधारणः अपि लोकः अस्ति अधिक पापी कैसे है ? ( सो कहते हैं) संशयात्माको अर्थात् जिसके चित्तमें संशय है उस तथा न परो लोको न सुखम् , तत्र अपि संशयो- पुरुषको न तो यह साधारण मनुष्यलोक मिलता है, पपत्ते, संशयात्मनः संशयचित्तस्य । तस्मात् न परलोक मिलता है और न सुख ही मिलता है, क्योंकि वहाँ भी संशय होना. सम्भव है, इसलिये संशयो न कर्तव्यः॥४०॥ | संशय नहीं करना चाहिये ॥ ४०॥