पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१४४

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१२८ श्रीमद्भगवद्गीता योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् । आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥४१॥ योगसंन्यस्तकर्माणं परमार्थदर्शनलक्षणेन जिस परमार्थदर्शी पुरुषने परमार्थज्ञानरूप योगके योगेन संन्यस्तानि कर्माणि येन परमार्थदर्शिना द्वारा पुण्य-पापरूप सम्पूर्ण कर्मोका त्याग कर दिया हो, धर्माधर्मास्यानि तं योगसंन्यस्तकर्माणम् । वह योगसंन्यस्तकर्मा है । उसको (कर्म नहीं बाँधते) कथं योगसंन्यस्तकर्मा इति आह- वह योगसंन्यस्तकर्मा कैसे है ? सो कहते हैं- ज्ञानेन आत्मेश्वरैकत्वदर्शनलक्षणेन संछिन्नः आत्मा और ईश्वरकी एकता-दर्शनरूप ज्ञानद्वारा जिसका संशय अच्छी प्रकार नष्ट हो चुका है, वह संशयो यस्य स ज्ञानसंछिन्नसंशयः। 'ज्ञानसंछिन्नसंशय' कहलाता है। ( इसीलिये वह योगसंन्यस्तकर्मा है) य एवं योगसंन्यस्तकर्मा तम् आत्मवन्तम् जो इस प्रकार योगसंन्यस्तकर्मा है, उस आत्मवान् यानी आत्मबलसे युक्त प्रमादरहित अप्रमत्तं गुणचेष्टारूपेण दृष्टानि कर्माणि न पुरुषको हे धनंजय ! (गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं इस निबध्नन्ति अनिष्टादिरूपं फलं न आरभन्ते हे प्रकार ) गुणोंकी चेष्टामात्रके रूपमें समझे हुए कर्म नहीं बाँधते, अर्थात् इष्ट, अनिष्ट और मिश्र-इन धनंजय ॥४१॥ तीन प्रकारके फलोंका भोग नहीं करा सकते ॥४१॥ यस्मात् च यसात् कर्मयोगानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षय- क्योंकि कर्मयोगका अनुष्ठान करनेसे अन्तःकरण- की अशुद्धिका क्षय हो जानेपर उत्पन्न होनेवाले हेतुकज्ञानसंछिन्नसंशयो न निवध्यते, कर्मभिः | आत्मज्ञानसे जिसका संशय नष्ट हो गया है ऐसा ज्ञानाग्निदग्धकर्मत्वाद् एव । पुरुष तो ज्ञानाग्निद्वारा उसके कर्म दग्ध हो जानेके कारण कर्मोंसे नहीं बँधता; तथा ज्ञानयोग और कर्म- ज्ञानकर्मानुष्ठानविषये संशयवान् विनश्यति- । योगके अनुष्ठानमें संशय रखनेवाला नष्ट हो जाता है-- तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः । छित्त्वैनं । संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥ ४२ ॥ तस्मात् पापिष्ठम् अज्ञानसंभूतम् अज्ञानाद् इसलिये अज्ञान यानी अविवेकसे उत्पन्न और अविवेकाद् जातं हृत्स्थं हृदि बुद्धौ स्थितं ! अन्तःकरणमें रहनेवाले (अपने नाशके हेतुभूत) इस ज्ञानासिना शोकमोहादिदोषहरं सम्यग्दर्शनं शोक-मोह आदि दोषोंका नाश करनेवाला यथार्थ- | अत्यन्त पापी अपने संशयको ज्ञानखड्गद्वारा अर्थात् ज्ञानं तद् एव असिः खड्गः तेन ज्ञानासिना दर्शनरूप जो ज्ञान है वही खड्ग है उस स्वरूपज्ञान- आत्मनः स्वस्य। | रूप खड्गद्वारा (छेदन करके कर्मयोगमें स्थित हो)। आत्मविषयत्वात् संशयस्य । यहाँ संशय आत्मविषयक है इसलिये ( उसके साथ 'आत्मनः' विशेषण दिया गया है)।