पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१४७

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--..-mindi शांकरभाष्य अध्याय ५ पू०-सो कैसे?

सत्यम् एव त्वदभिप्रायेण प्रश्नो न उप- उ०-ठीक है, तुम्हारे अभिप्रायसे तो प्रश्न नहीं पद्यते प्रष्टुः स्वाभिप्रायेण पुनः प्रश्नो युज्यते बन सकता परन्तु इसमें हमारा कहना यह है कि प्रश्नकर्ताके अपने अभिप्रायसे तो प्रश्न बन ही एव इति बदामः। सकता है। कथम्। पूर्वोदाहृतः वचनैः भगवता कर्मसंन्या- उ०-पूर्वोक्त वचनोंसे भगवान्ने कर्मसंन्यासको सस्य कर्तव्यतया विवक्षितत्वात् प्राधान्यम्, कर्त्तव्यरूपसे वर्णन किया है । इससे उसकी प्रधानता अन्तरेण च कर्तारं तस्य कर्तव्यत्वासंभवात्, सिद्ध होती है। किन्तु बिना कर्ताके उसकी अनात्मविद् अपि कर्ता पक्षे प्राप्तः अनूद्यते एव भी संन्यासका कर्ता हो जाता है (सुतरां) उसीका कर्तव्यता असम्भव है [ इसलिये एक पक्षमें अज्ञानी न पुनः आत्मवित्कर्टकत्वम् एव संन्यासस्य अनुमोदन किया जाता है, केवल आत्मज्ञानी-कर्तृक विवक्षितम् इति । ही संन्यास होता है, यह कहना अभीष्ट नहीं है । एवं मन्वानस्य अर्जुनस्य कर्मानुष्ठानकर्म- इस प्रकार कर्मानुष्टान और कर्मसंन्यास यह दोनों संन्यासयोः अविद्वत्पुरुषकर्तृकत्वम् अपि अस्ति अज्ञानीद्वारा भी किये जा सकते हैं, ऐसा माननेवाले अर्जुनका, दोनोंमेंसे एक श्रेष्ठतर साधन जाननेकी इति पूर्वोक्तेन प्रकारेण तयोः परस्परविरोधाद् इच्छासे प्रश्न करना, अयुक्त नहीं है । क्योंकि पूर्वोक्त अन्यतरस्य कर्तव्यत्वे प्राप्ते प्रशस्यतरं च प्रकारसे उन दोनोंका परस्पर विरोध होनेके कारण कर्तव्यं न इतरद् इति प्रशखतरविविदिषया दोनोंमेंसे किसी एककी ही कर्तव्यता प्राप्त होती है । ऐसा होनेसे जो श्रेष्ठतर हो उसे ही करना प्रश्नो न अनुपपन्नः । चाहिये, दूसरेको नहीं। प्रतिवचनवाक्यार्थनिरूपणेन अपि प्रष्टुः उत्तरमें कहे हुए भगवानके वचनोंका अर्थ निरूपण करनेसे भी, प्रश्नकर्ताका यही अभिप्राय अभिप्राय एवम् एव इति गम्यते । प्रतीत होता है। पू०-कैसे ? संन्यासकर्मयोगी निःश्रेयसकरौ तयोः उ०-संन्यास और कर्मयोग यह दोनों ही तु कर्मयोगी विशिष्यते इति प्रतिवचनम् । कल्याणकारक हैं और उन दोनोंमेंसे कर्मयोग श्रेष्ट है- यह भगवान्का उत्तर है। एतत् निरूप्यं किम् अनेन आत्मवित्क- इसमें विचारनेकी बात यह है कि इस प्रति- तृकयोः संन्यासकर्मयोगयोः निःश्रेयसकरत्वं वचनसे आत्मज्ञानीद्वारा किये हुए संन्यास और कर्म- योगका कल्याणकारकतारूप प्रयोजन बतलाकर प्रयोजनम् उक्त्वा तयोः एव कुतश्चिद् विशेषात् उन दोनोंमेंसे ही किसी विशेषताके कारण, कर्म- कर्मसंन्यासाद् कर्मयोगस्य विशिष्टत्वम् उच्यते, संन्यासकी अपेक्षा कर्मयोगकी श्रेष्ठता कही गयी है ? आहोखित् अनात्मवित्कर्तृकयोः संन्यास- अथवा अज्ञानीद्वारा किये हुए संन्यास और कर्मयोग- कर्मयोगयो तद् उभयम् उच्यते इति । के विषयमें यह दोनों बातें कही गयी हैं ? .