पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१४८

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श्रीमद्भगवद्गीता किं च अतो यदि आत्मवित्कर्तृकयोः पू०-- इससे क्या मतलब है ? चाहे आत्मवेत्ता- संन्यासकर्मयोगयोः निःश्रेयस्करत्वं तयोः तु द्वारा किये हुए संन्यास और कर्मयोगी कल्याण- कर्मसंन्यासात् कर्मयोगस्य विशिष्टत्वम् उच्यते कारकता और उन दोनों में संन्यासकी अपेक्षा कर्म- यदि वा अनात्मवित्कर्तृकयोः संन्यासकर्म- योगकी श्रेष्ठता कही गयी हो अथवा चाहे अज्ञानी- योगयोः तद् उभयम् उच्यते इति । संन्यास और कर्मयोगकै विषयमें ही वे दोनों बातें कही गयी हों। द्वारा किये उभयम् उपपद्यते। अत्र उच्यते, आत्मवित्कर्टकयोः संन्यास- उ०-आत्मज्ञानीकर्तृक कर्मसंन्यास और कर्मयोगयोः असंभवात् तयोः निःश्रेयसकरत्व- । कर्मयोगका होना असम्भव है, इस कारण उन वचनं तदीयात् च कर्मसंन्यासात् कर्मयोगस्य दोनोंको कल्याणकारक कहना और उसके किये विशिष्टत्वाभिधानम् इति एतद् उभयम् | हुए कर्मसंन्यासकी अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ बतलाना, अनुपपन्नम्। ये दोनों बातें ही नहीं बन सकता । यदि अनात्मविदः कर्मसंन्यास तत्प्रतिकूल: यदि कर्मसंन्यास और उलके विरुद्ध कर्मानुष्ठान- च कर्मानुष्ठानलक्षणः कर्मयोगः संभवेतां तदा रूप कर्मयोग इन दोनोंको अज्ञानीकर्तृक मान लिया तयोः निश्रेयसकरत्वोक्तिः कर्मयोगस्य च जाय तो फिर इन दोनों साधनोंको कल्याणकारक कर्मसंन्यासात् विशिष्टत्वाभिधानम् इति एतद् बताना और कर्मसंन्यासकी अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ बतलाना-ये दोनों बातें ही बन सकती हैं। आत्मविदः तु संन्यासकर्मयोगयो परन्तु आत्मज्ञानीके द्वारा कर्मसंन्यास और कर्म- असंभवात् तयोः निःश्रेयसकरत्वाभिधानं योगका होना असम्भव है, इस कारण उन्हें कर्मसंन्यासात् च कर्मयोगो विशिष्यते इति कल्याणकारक कहना एवं कर्मसंन्यासकी अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ बतलाना-ये दोनों बातें नहीं च अनुपपन्नम् । बन सकतीं। अत्र आह, किम् आत्मविदः संन्यासकर्म- पू०-आत्मज्ञानीके द्वारा कर्मसंन्यास और कर्म- योगयोः अपि असंभव आहोखिद् अन्यतरस्य योग दोनोंका ही होना असम्भव है अश्ववा दोनों से असंभवो यदा च अन्यतरस्य असंभवः तदा किसी एकका ही होना असम्भव है ? यदि किसी किं कर्मसंन्यासस्य उत कर्मयोगस्य इति एकका होना ही असम्भव है तो कर्मसंन्यासका होना असम्भव है या कर्मयोगका ? साथ ही उसके असम्भव असंभवे कारणं च वक्तव्यम् इति । होनेका कारण भी बतलाना चाहिये । अत्र उच्यते, आत्मविदो निवृत्तमिथ्याज्ञान- उ०-आत्मज्ञानीका मिथ्या ज्ञान निवृत्त हो जाता त्वाद् विपर्ययज्ञानमूलस्य कर्मयोगस्य असंभवः है, अतः उसके द्वारा विपर्यय-ज्ञानमूलक कर्मयोगका । होना ही असम्भव है। सात् ।