पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१४९

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ला..... शांकरभाष्य अध्याय ५ जन्मादिसर्वविक्रियारहितत्वेन निष्क्रियम् क्योंकि, जो जन्स आदि समस्त विकारोंसे आत्मानम् आत्मत्वेन यो वेत्ति तस्य आत्मविदः रहित निष्क्रिय आत्माको अपना खरूप समझ सम्यग्दर्शनेन अपास्तमिथ्याज्ञानस्य निष्क्रि- लेता है, जिसने यथार्थ ज्ञानद्वारा मिथ्याज्ञानको हटा दिया है, उस आत्मज्ञानी पुरुषके लिये निष्क्रिय यात्मस्वरूपावस्थानलक्षणं सर्वकर्मसंन्यासम् आत्मस्वरूपसे स्थित होजानारूप सर्व कर्मोंका संन्यास उक्त्वा, तद्विपरीतस्य मिथ्याज्ञानमूलकर्तृत्वा- बतलाकर, इस गीताशास्त्रमें जहाँ-तहाँ आत्मस्वरूप- भिमानपुर सरस्थ सक्रियात्मस्वरूपावस्थान- सम्बन्धी निरूपणके प्रकरणोंमें,यथार्थज्ञान, मिथ्याज्ञान रूपस्य कर्मयोगस्य इह शास्त्रे तत्र तत्र आत्म- और उनके कार्यका परस्पर विरोध होनेके कारण, खरूपनिरूपणप्रदेशेषु सम्यग्ज्ञानमिथ्या- उपर्युक्त संन्याससे विपरीत मिथ्याज्ञानमूलक कर्तृत्व- ज्ञानतत्कार्यविरोधाद् अभावः प्रतिपाद्यते, अभिमानपूर्वक सक्रिय आत्मस्वरूपमें स्थित होना- रूप कर्मयोगके अभावका ही प्रतिपादन किया गया यसात, तस्माद् आत्मविदो निवृत्तमिथ्या है । इसलिये जिसका मिथ्याज्ञान निवृत्त हो गया ज्ञानस्य विपर्ययज्ञानमूलः कर्मयोगो न संभवति है, ऐसे आत्मज्ञानीके लिये मिथ्याज्ञानमूलक कर्मयोग इति युक्तम् उक्तं स्यात् । सम्भव नहीं, यह कहना ठीक ही है। केषु केषु पुनः आत्मस्वरूपनिरूपणप्रदेशेषु आत्मविदः काभावः प्रतिपाद्यते इति । पूर o-आत्मस्वरूपका निरूपण करनेवाले किन- किन प्रकरणोंमें ज्ञानीके लिये कमोंका अभाव बताते हैं ? अत्र उच्यते, 'अविनाश तु तद्विद्धि' इति उ०-'उस आत्माको तू अविनाशी समझ' प्रकृत्य “य एनं बोत्त हन्तारम् वेदाविनाशिनं यहाँसे प्रकरण आरम्भ करके 'जो इस आत्माको भारनेवाला समझता है जो इस अविनाशी नित्यम्' इत्यादौ तत्र तत्र आत्मविदः कर्माभाव नित्य आत्माको जालता है' इत्यादि वाक्योंमें जगह- उच्यते । जगह ज्ञानीके लिये कर्मोंका अभाव कहा है। ननु च कर्मयोगः अपि आत्मस्वरूप- पूल 0--इस प्रकार तो आत्मस्वरूपका निरूपण करने- निरूपणप्रदेशेषु तत्र तत्र प्रतिपाद्यते एव तद् किया ही है जैसे इसलिये हे भारत तू युद्ध कर' वाले स्थानोंमें जगह-जगह कर्मयोगका भी प्रतिपादन यथा 'तस्माद्युध्यस्व भारत' 'स्वधर्ममपि चावेक्ष्य' | 'स्वधर्मकी ओर देखकर भी तुझे युद्धसे डरना उचित नहीं है 'तेरा कर्ममें ही अधिकार है। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते” इत्यादौ । अतः च कथम् इत्यादि । अतः आत्मज्ञानीके लिये कर्मयोगका होना .. आत्मविदः कर्मयोगस्य असंभवः स्याद् इति । असम्भव कैसे होगा ? अत्र उच्यते सम्यग्ज्ञानमिथ्याज्ञानतत्कार्य- विरोधात् । उ०-क्योंकि सम्यकज्ञान, मिथ्याज्ञान और उनके कार्यका परस्पर विरोध है।