पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१५०

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श्रीमद्भगवद्गीता 'ज्ञानयोगेन सांख्यानाम्' इति अनेन आत्मतत्त्वको जाननेवाले सांख्ययोगियोंकी सांख्यानाम् आत्मतत्त्वविदाम् अनात्मवित्कर्तृ- निष्क्रिय आत्मस्वरूपसे स्थितिरूप ज्ञानयोगनिष्ठाको 'ज्ञानयोगेन सांख्यानाम्' इस बचनद्वारा अज्ञानियों- ककर्मयोगनिष्ठातो निष्क्रियात्मस्वरूपावस्थान- द्वारा की जानेवाली कर्मयोगनिष्ठासे पृथक कर लक्षणाया ज्ञानयोगनिष्ठायाः पृथक्करणात् । दिया है। कृतकृत्यत्वेन आत्मविदः प्रयोजनान्तरा- कृतकृत्य हो जानेके कारण आत्मज्ञानीके अन्य सब प्रयोजनोंका अभाव हो जाता । 'तस्य कार्य न विद्यते इति कर्तव्यान्तराभाव- 'उसका कोई कर्तव्य नहीं रहता' इस कथन- से ज्ञानीके अन्य कर्तव्योंका अभाव बताया भावात् । वचनात् च। गया है। 'न कर्मणामनारम्भात्' 'संन्यासस्तु महाबाहो 'काँका आरम्भ विना किये शाननिष्ठा नहीं मिलतीहे महावाहो! बिना कर्मयोग संन्यास दुःखमाप्तुमयोगतः' इत्यादिना च आत्मज्ञानाङ्ग प्राप्त करना कठिन है' इत्यादि बचनोंसे कर्मयोग- त्वेन कर्मयोगस्य विधानात् । को आत्मज्ञानका अंग बताया गया है। 'योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते' 'उसी योगारूढ़को उपशम कर्तव्य है' इति अनेन च उत्पन्नसम्यग्दर्शनस्थ कर्मयोगा- | इस वचनसे यथार्थ ज्ञानीके लिये कर्मयोगके अभाव- भाववचनात् । का वर्णन है। 'शारीरं केवलं कर्म कुर्वनाप्नोति किल्बिषम्' 'केवल शरीरसम्बन्धी कर्म करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता' यहाँ भी ज्ञानीके इति च शरीरस्थितिकारणातिरिक्तस्य कर्मणो लिये शरीर-स्थितिके कारणरूप कर्मोसे अतिरिक्त निवारणात् । कोंका निवारण किया गया है । 'नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्' | तथा 'तत्त्ववेत्ता योगी पेसामाने कि मैं कुछ इति अनेन च शरीरस्थितिमात्रप्रयुक्तेषु अपि | भी नहीं करता' इस कथनसे केवल शरीर-यात्राके दर्शनश्रवणादिकर्मसु आत्मयाथात्म्यविदः लिये किये जानेवाले दर्शन, श्रवण आदि कर्मोमें करोमि इति प्रत्ययस्य समाहितचेतस्तया सदा भी यथार्थदर्शीके लिये 'मैं करता हूँ' इस प्रत्ययको अकर्तव्यत्वोपदेशात् । समाहितचित्तद्वारा हटानेका उपदेश है । आत्मतत्त्वविदः सम्यग्दर्शनविरुद्धो मिथ्या- इन सब कारणोंसे आत्मवेत्ता पुरुषके लिये यथार्थ- ज्ञानहेतुकः कर्मयोगःखप्ने अपि न संभावयितुं दर्शनसे विरुद्ध तथा मिथ्याज्ञानसे होनेवाला कर्मयोग खप्नमें भी सम्भव नहीं माना जा सकता। तस्माद् अनात्मवित्कर्तृकयोः इसलिये यहाँ अज्ञानीके संन्यास और एव कर्मयोगको ही कल्याणकारक बताया है और संन्यासकर्मयोगयोः निःश्रेयसकरत्ववचनं | उस अज्ञानीके संन्यासकी अपेक्षा ही (कर्मयोग- तदीयात् च कर्मसंन्यासात् पूर्वोक्तात्मवित्कर्तृक- की श्रेष्ठताका विधान है ) । अर्थात् जो पहले कहे सर्वकर्मसंन्यासविलक्षणात् सति एव कर्तृत्व- | हुए आत्मज्ञानीके संन्याससे विलक्षण है तथा शक्यते यस्मात् ।