पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१६१

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माध्यमKARNA शांकरभाष्य अध्याय ५

न आदत्ते न च गृह्णाति भक्तस्य अपि विभु ( सर्वव्यापी परमात्मा ) किसी भक्तके. कस्यचित् पापं न च एव आदत्ते सुकृतं भक्कै . पापको भी ग्रहण नहीं करता और भक्तोंद्वारा अर्पण प्रयुक्तं विभुः। किये हुए सुकृतको भी वह नहीं लेता। किमर्थं तर्हि भक्त पूजादिलक्षणं यागदान- होमादिकं च सुकृतं प्रयुज्यते, इति आह- तो फिर भक्तोंद्वारा यूजा आदि अच्छे कर्म एवं यज्ञ, दान, होम आदि सुकृत कर्म किसलिये अर्पण किये जाते हैं ? इसपर कहते हैं--- अज्ञानेन आवृतं ज्ञानं विवेकविज्ञानं तेन जीवोंका विवेक-विज्ञान अज्ञानसे ढका हुआ है मुह्यन्ति करोमि कारयामि भोक्ष्ये भोजयामि इस कारण अविवेकी-संसारी जीव ही 'करता हूँ, इति एवं मोहं गच्छन्ति अविवेकिनः संसारिणो | 'कराता हूँ', 'खाता हूँ', 'खिलाता हूँ', इस प्रकार जन्तवः ॥१५॥ मोहको प्राप्त हो रहे हैं ॥ १५ ॥ ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥१६॥ ज्ञानेन तु येन अज्ञानेन आवृता मुह्यन्ति जिन जीवोंके अन्तःकरणका वह अज्ञान, जिस जन्तवः तद् अज्ञानं येषां जन्तूनां विवेकज्ञानेन अज्ञानसे आच्छादित हुए जीव मोहित होते हैं, आत्म- आत्मविषयेण नाशितम् आत्मनो भवति, तेषाम् ' विषयक विवेक-ज्ञानद्वारा नष्ट हो जाता है, उनका वह ज्ञान, सूर्यकी भाँति उस परम परमार्थतत्वको आदित्यवद् यथा आदित्यः समस्तं रूपजातम् प्रकाशित कर देता है । अर्थात् जैसे सूर्य समस्त रूप- अवभासयति तद् ज्ञानं ज्ञेयं वस्तु सर्व मात्रको प्रकाशित कर देता है वैसे ही उनका ज्ञान प्रकाशयति तत्परं परमार्थतत्त्वम् ॥ १६॥ समस्त ज्ञेय वस्तुको प्रकाशित कर देता है ॥१६॥ यत् परं ज्ञानं प्रकाशितम्-- | जो प्रकाशित हुआ परमज्ञान है- तबुद्धयस्तदात्मानस्तनिष्ठास्तत्परायणाः । गच्छन्त्यपुनरावृत्ति ज्ञाननिषूतकल्मषाः ॥ १७ ॥ तस्मिन् गता बुद्धिः येषां ते तबुद्धयः उस परमार्थतत्त्वमें जिनकी बुद्धि जा पहुँची है तदात्मानः तद् एव परं ब्रह्म आत्मा येषां वे 'तबुद्धि' हैं, वह परब्रह्म ही जिनका आत्मा है ते तदात्मानः तनिष्ठा निष्ठा अभिनिवेश: वे'तदात्मा'है, उस ब्रह्ममें ही जिनकी निष्ठा--दृढ़ आत्म- तात्पर्य सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य ब्रह्मणि भावना-तत्परता है अर्थात् जो सब कर्मोंका संन्यास एव अवस्थानं येषां ते तनिष्ठाः । करके ब्रह्ममें ही स्थित हो गये हैं वे 'तनिष्ठ हैं।