पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१६४

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१४८ श्रीमद्भगवद्गीता दृश्यते हि ब्रह्मविद् घडनवित् चतुर्वेदविद् | क्योंकि पूजा, दान आदि कर्मोंमें ( भेदबुद्धिका ) इति पूजादानादौ गुणविशेषसंबन्धः कारणम् । कारण 'ब्रह्मवेत्ता' 'छओं अङ्गों को जाननेवाला' 'चारों | वेदोंको जाननेवाला' इत्यादि विशेष गुणोंका सम्बन्ध देखा जाता है। ब्रह्म तु सर्वगुणदोषसंवन्धवर्जितम् इति अतो परन्तु ब्रह्म सम्पूर्ण गुण-दोपोंके सम्बन्धसे रहित ब्रह्मणि ते स्थिता इति युक्तम् । है इसलिये यह ( कहना ) ठीक है कि वे ब्रह्ममें स्थित हैं। कर्मिविषयं च समासमाभ्याम्' इत्यादि, इदं. इसके अतिरिक्त 'समासमाभ्याम्' इत्यादि सर्वकर्मसंन्यासिविषयं प्रस्तुतम् 'सर्वकर्माणि कथन तो कर्मियों के विषयमें है और यह 'सर्वकर्माणि मनसा' इति आरभ्य आ-अध्यायपरिसमाप्तः१९ मनसा' इस श्लोकसे लेकर अध्यायसमातितक सारा प्रकरण सर्व-कर्म-संन्यासीके विषयमें है ॥१९॥ अनिष्टं लब्ध्वा, यसाद् निर्दोष समं ब्रह्म आत्मा तस्मात्- क्योंकि निर्दोष और सम ब्रह्म ही आत्मा है, इसलिये- न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥ २०॥ न प्रहृष्येत् न प्रहर्ष कुर्यात् प्रियम् इष्ट प्राप्य प्रिय वस्तुको प्राप्त करके तो हर्पित न हो अर्थात् लब्ध्वा, न उद्विजेत् प्राप्य एव च अप्रियम् इष्टवस्तु पाकर तो हर्ष न माने और अप्रिय–अनिष्ट पदार्थके मिलनेपर उद्वेग न करे । देहमात्रात्मदर्शिनां हि प्रियाप्रियप्राप्ती हर्ष- क्योंकि देहमात्रमें आत्मबुद्धिबाले पुरुषको ही प्रियकी प्राप्ति हर्ष देनेवाली और अप्रियकी प्राप्ति विषादस्थाने न केवलात्मदर्शिनः तस्य प्रिया- शोक उत्पन्न करनेवाली हुआ करती है, केवल प्रियप्राप्त्यसंभवात् । उपाधिरहित आत्माका साक्षात् करनेवाले पुरुषको | नहीं । कारण, उसके लिये (वास्तवमें) प्रिय और अप्रियकी प्राप्ति असम्भव है। कि च सर्वभूतेषु एकः समो निर्दोष आत्मा सब भूतोंमें आत्मा एक है, सम है और निर्दोष इति स्थिरा निर्विचिकित्सा बुद्धिः यस्य स है, ऐसी संशय-रहित बुद्धि जिसकी स्थिर हो चुकी स्थिरबुद्धिः असंमूढः संमोहवर्जितः च स्याद् है और जो मोह-अज्ञानसे रहित है, वह स्थिरबुद्धि यथोक्तो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः अकर्मकृत् सर्व- ब्रह्मज्ञानी ब्रह्ममें ही स्थित है । अर्थात् वह कर्म न कर्मसंन्यासी इत्यर्थः ॥२०॥ करनेवाला-सर्व कर्मों का त्यागी ही है ॥२०॥