पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१६५

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APRIMeritannamah शांकरभाष्य अध्याय ५ RA किं च ब्रह्मणि स्थित:- और भी वह ब्रह्ममें स्थित हुआ पुरुष ( कैसा होता है सो बताते हैं )- बाह्यस्पर्शेष्वसत्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् । स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ २१ ॥ बाह्यस्पर्शेषु बाह्याः च स्पर्शाचते बाह्यस्पर्शाः 'जिनका इन्द्रियोंद्वारा स्पर्श ( ज्ञान ) किया जा स्पृश्यन्ते इति स्पर्शाः शब्दादयो विषयाः तेषु सके वे स्पर्श हैं-इस व्युत्पत्तिसे शब्दादि बाह्य बाह्यस्पर्शेषु असक्त आत्मा अन्तःकरण यस्य सः विषयोंका नाम ही स्पर्श है, उन बाह्य स्पोंमें अयम् असत्तात्मा विषयेषु प्रीतिवर्जितः सन् जिसका अन्तःकरण आसक्त नहीं है, ऐसा विषय- विन्दति लभते आत्मनि यत् सुखं तद् विन्दति प्रीतिसे रहित पुरुष आत्मामें जो सुख है, उसको इति एतत् । प्राप्त हो जाता है। स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा ब्रह्मणि योगः समाधि: तथा वह ब्रह्मयोग-युक्तात्मा ब्रह्ममें जो समाधि ब्रह्मयोगः तेन ब्रह्मयोगेन युक्तः समाहितः है उसका नाम ब्रह्मयोग है, उस ब्रह्मयोगसे जिसका तस्मिन् व्याप्त आत्मा अन्तःकरणं यस्य अन्तःकरण युक्त है-अच्छी प्रकार उसमें स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखम् अक्षयम् अश्नुते समाहित है- -लगा हुआ है, ऐसा पुरुष अक्षय प्राप्नोति। सुख भोगता-अनुभव करता है । तस्माद् बाह्यविषयप्रीतः क्षणिकाया इन्द्रि- इसलिये आत्मामें अक्षय सुख चाहनेवाले पुरुष- याणि निवर्तयेद् आत्मनि अक्षयसुखार्थी ! को चाहिये कि वह क्षणिक बाह्य विषयोंकी प्रीतिसे इत्यर्थः ॥ २१ ॥ | इन्द्रियोंको हटा ले। यह अभिप्राय है ।। २१ ॥ इतः च निवर्तयेत्- इसलिये भी ( इन्द्रियोंको विषयोंसे ) हटा लेना चाहिये-- ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ २२॥ ये हि यसात् संस्पर्शजा विषयेन्द्रिय- क्योंकि विषय और इन्द्रियोंके सम्बन्धसे उत्पन्न संस्पर्शेभ्यो जाता भोगा भुक्तयो दुःखयोनय हुए जो भोग हैं वे सब अविद्याजन्य होनेसे केवल दुःखके ही कारण हैं । क्योंकि आध्यात्मिक आदि एव ते अविद्याकृतत्वात् । दृश्यन्ते हि आध्या- ( तीनों प्रकारके ) दुःख उनके ही निमित्तसे होते त्मिकादीनि दुःखानि तन्निमित्तानि एव । | हुए देखे जाते हैं। यथा इह लोके तथा परलोके अपि इति "एव' शब्दसे यह भी प्रकट होता है कि ये जैसे गम्यते एवशब्दात् । इस लोकमें दुःखप्रद है, वैसे ही परलोकमें भी हैं । न संसारे सुखस्य गन्धमात्रम् अपि अस्ति, संसारमें सुखकी गन्धमात्र भी नहीं है, यह इति बुद्ध्वा विषयमृगतृष्णिकाया इन्द्रियाणि समझकर विषयरूप मृगतृष्णिकासे इन्द्रियोंको हटा निवर्तयेत् । लेना चाहिये।